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Showing posts from June, 2019

ठहरो जरा

घंटो बैठता हूँ अब इत्मिनान के आँगन में, जबसे बैठा हूँ लगता है ज़िन्दगी मिल गयी है। पहर दो पहर मेरी सांसे थमने लगी, चिराग़े-रौशन की मानों महफ़िल मिल गयी है। पल यही है अभी है जीने के लिये, ख़्वाब-ए-रौनक़ के आँगन अब बोझिल हो चली है। हर दौड़ की क़ीमत ज़िन्दगी ही है भला, हर फ़तेह के धधकते ज़िस्म का चश्मे-दीदार हूँ। तन्हाइयों के मौज में जो डूबता चला गया, इस भीड़ की रुसवाईयों का शुक्रगुजार हूँ। ताबड़तोड़ तमाशे हवाओं में हैं, शोर-शराबों का अब ना अख़बार हूँ। युवाओं के क़ातिल इम्तिहान हैं इस क़दर, ऐसे मादक समय का गवाह हूँ। मृत्युंजय

आपकी सीमा उतनी ही है जितनी आप सोचते हैं

परिभाषित करना दुनिया की एक सर्वमान्य तरक़ीब है, जिससे किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार, या फिर संसार को एक दायरे में सीमित किया जाता है। जो ज़िन्दा है उसकी सीमा नहीं हो सकती। उसकी सीमा गढ़ी जाती है। जैसे शब्दों के जरिये हम किसी विचार को प्रकट करते हैं। और उस विचार को सार्वभौमिक सत्य मान लेते हैं। पहचान को बनना और बनाना हमारे मन का वहम हो सकता है। जो दुनिया कहे वो पहचान नहीं हो सकती है। पहचान जिसे आइडेंटिटी कहते हैं वो एक कल्पना है, जिसे आप दुनिया के बनाये गए सांचे में ग्रहण करते हैं। कुछ पहचान आप अपने मेहनत से पाना चाहते हैं। पर पहचान भी एक सीमा है। जो वास्तविक नहीं है। पहचान प्रकृति की विशेषता नहीं है। प्रकृति अनूठी है। हम सब अनूठे हैं। हमारे पास अनंत सम्भावनाएं हैं। जिसे हम पहचान के सांचे में ढाल कर समाप्त कर देते हैं। हमने धर्म, जाति, लिंग के भेद को अपने जीवन में सर्वोच्च जगह दी। शायद हमें ऐसा करना उपयोगी सिद्ध हुआ। पर हमनें मनुष्य की अनूठी क्षमताओं को एक दायरे में बांध दिया। हमें अच्छा लगता है दूसरों को बताना की तुम क्या हो और कौन हो। ये अलग बात है कि बतानेवाला ख़ुद को भी नहीं जानता कि वो क