घंटो बैठता हूँ अब इत्मिनान के आँगन में, जबसे बैठा हूँ लगता है ज़िन्दगी मिल गयी है। पहर दो पहर मेरी सांसे थमने लगी, चिराग़े-रौशन की मानों महफ़िल मिल गयी है। पल यही है अभी है जीने के लिये, ख़्वाब-ए-रौनक़ के आँगन अब बोझिल हो चली है। हर दौड़ की क़ीमत ज़िन्दगी ही है भला, हर फ़तेह के धधकते ज़िस्म का चश्मे-दीदार हूँ। तन्हाइयों के मौज में जो डूबता चला गया, इस भीड़ की रुसवाईयों का शुक्रगुजार हूँ। ताबड़तोड़ तमाशे हवाओं में हैं, शोर-शराबों का अब ना अख़बार हूँ। युवाओं के क़ातिल इम्तिहान हैं इस क़दर, ऐसे मादक समय का गवाह हूँ। मृत्युंजय
There is something in everything and everything in something.