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आपकी सीमा उतनी ही है जितनी आप सोचते हैं

परिभाषित करना दुनिया की एक सर्वमान्य तरक़ीब है, जिससे किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार, या फिर संसार को एक दायरे में सीमित किया जाता है। जो ज़िन्दा है उसकी सीमा नहीं हो सकती। उसकी सीमा गढ़ी जाती है। जैसे शब्दों के जरिये हम किसी विचार को प्रकट करते हैं। और उस विचार को सार्वभौमिक सत्य मान लेते हैं। पहचान को बनना और बनाना हमारे मन का वहम हो सकता है। जो दुनिया कहे वो पहचान नहीं हो सकती है। पहचान जिसे आइडेंटिटी कहते हैं वो एक कल्पना है, जिसे आप दुनिया के बनाये गए सांचे में ग्रहण करते हैं। कुछ पहचान आप अपने मेहनत से पाना चाहते हैं। पर पहचान भी एक सीमा है। जो वास्तविक नहीं है। पहचान प्रकृति की विशेषता नहीं है। प्रकृति अनूठी है। हम सब अनूठे हैं। हमारे पास अनंत सम्भावनाएं हैं। जिसे हम पहचान के सांचे में ढाल कर समाप्त कर देते हैं। हमने धर्म, जाति, लिंग के भेद को अपने जीवन में सर्वोच्च जगह दी। शायद हमें ऐसा करना उपयोगी सिद्ध हुआ। पर हमनें मनुष्य की अनूठी क्षमताओं को एक दायरे में बांध दिया। हमें अच्छा लगता है दूसरों को बताना की तुम क्या हो और कौन हो। ये अलग बात है कि बतानेवाला ख़ुद को भी नहीं जानता कि वो कौन है। किसी घर में जन्म लेने मात्र से, किसी विचारधारा में ढ़ल जाने मात्र से कोई पहचान सम्पूर्ण नहीं हो सकती। पहचान का सच उसके विरोधाभासी विचारों के समागम से निकल कर आती है। लुडविग विटगेन्स्टीन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "ट्रैकटेटस" में लिखा है कि हमारी दुनिया की सीमाएं हमारे शब्दों के इर्द गिर्द घूमती है। हमनें शब्दों को गॉस्पेल ट्रुथ मान लिया। हमनें स्वीकार कर लिया ये शब्द दुनिया को उसके चीर-परिचित अवसंरचना में रेखांकित करते हैं, प्रतिनिधित्व करते हैं। पर सच तो ये है कि व्याकरण का विकाश और उससे आगे साहित्य का चिंतन और मनन इंसानों ने अपनी काल्पनिक दुनिया बनाने के लिए किया। जिसे उसने ज्ञान का नाम दिया। मिसेल फूको अपनी पुस्तक "द आर्डर ऑफ थिंग्स" में ज्ञान निर्माण की यूरोपीय आकांक्षा को अपने चीर-परिचित अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं। वे सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक ज्ञान की विधा विकसित करने की तीन विशिष्ट "ईपिस्टमे" को ढूंढते नज़र आते हैं। और उसमें पहला स्थान वो प्रतिनिधित्वकरण एवं वर्गीकरण को देते हैं। उपयोगितावादी विचारक बेन्थम हो या फिर मेंडेल। सबने वर्गीकरण को एक विशिष्ट कार्यप्रणाली मान कर आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की रूप-रेखा तैयार की। हमारा पहचान भी इसी वर्गीकरण की मानसिकता से प्रेरित है। अब भला जब आप किसी को एक वर्ग में रखेंगे, एक विचारधारा से जोड़ कर देखेंगे, तो उसकी विशिस्टतता को आप कभी जान ही नहीं पायेंगे। इसीलिए किसी ने सच कहा है कि "आपकी सीमा उतनी ही है जितना आप सोचते हैं"!

आइडेंटिटी बनाना एक हिंसा है प्रकृति के साथ। ऐसी पहचान सन्सार की अनूठी एकता को नष्ट करते नज़र आती हैं। दुनिया में सारे युद्ध पहचान से जुड़ी विषयों के कारण हुए हैं। पहचान अपने-पराये का बोध विकसित करती है। इस प्रकार दूसरेपन या परायेपन का बोध हमें प्रकृति के सम्पूर्ण लोक से अलग करती है। हम प्रकृति-विजय की लालसा लिए कुछ मशीनों से खेलते नज़र आते हैं। और इस प्रकार मनुष्य की विकाशगाथा कई कालखंडों से चले आ रहे उसके मास्टरी को उजागर करती है। हमनें समग्रता को नहीं जाना। वास्तव में हम प्रकृति से अलग नहीं हैं। हम उसके एक हिस्से हैं। उसकी समग्रता को नहीं समझ सकते। क्यों नहीं प्रकृति को समझने के बजाय उसे जिया जाये? हमारी समझ जितनी बढ़ेगी उतनी ही इसे जटिल बनाती चली जायेगी। हम इसे पहचान के सांचे में नहीं ढ़ाल सकते। पहचान होता ही नहीं है। ये हमारे ज्ञान की उपज है और हमारे ज्ञान के ढ़ेर में ही दबा रह जायेगा!

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