दुःख-सुख के बाहर कोई अपना घर बनाना
ये रेत के बादल हैं इनके चेहरे पे लिखे तेरे नाम का कोई वजूद नहीं है
वो अस्तित्व भी भला कैसा अस्तित्व है
ठहरता ही नहीं, बदल जाता है
भारी मन से जो क़दम हर रोज उठाते हो
वो क़दम मंज़िल की नहीं मजबूरी की है
ठहर के जरा मन के आईने को साफ तो कर लो
क्या पता मंज़िल की आहटें तेरे मन के अंधेरे कोठरी में कैद हो
विचारों के प्रवाह को कभी पुर्ण विराम भी दिया करो
ख़ामोशी में अक़्सर सच्चाई बोल पड़ती है
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