किसी ने कहा था,
इतनी दूर भी मत जाओ,
कि ख़ुद भी तुमसे जुदा सा होने लगे।
और ख़ुद के इतने क़रीब भी ना आओ,
कि तुम्हे ख़ुद ही ख़ुदा नज़र आने लगे।
थोड़े से सी दायरे में रहो।
तभी तो एहसास होगा,
कि तुम बहते हुए दरिया की रवानगी हो,
और झूमते बेलों की मस्ती।
तुम्हें हस्ती बनाने-मिटाने की ज़रूरत नहीं,
जरा कल्पनाओं को विराम दो,
ठहर जाओ,
फ़िर जीवन की शाश्वता और नश्वरता में कोई भेद ना होगा।
Nice poem
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