पंख की चाहत और खुला आसमाँ एक परिंदा नशे में उड़ा जा रहा है बस नया सा जो है ये हवा से दिलग्गी बेसुधी के शज़र पे सिमटा जा रहा है एक ख़्वाब है दरख़्त-ए-ज़न्नत की बादलों के शहर में खोया जा रहा है चाहे नाज़ुक हो कितनी भी चाहत की उड़ान कुछ पल मिले हैं इसी में जिये जा रहा है बेशक़ ऊँचा है गहरा है सपनों का महल पर हक़ीक़त के रंगों से बिल्कुल नया लताओं के सिरहाने में खेला था कभी नुका-छिपी आज उन्मुक्त गगन में उमड़ता जा रहा है फ़लक़ निःसंदेह लुभाते हैं, बुलाते हैं पर धरा ही उसका जीवन और जननी जो है लौट के गर वो घर अपने आया नहीं किस बसर में निगाहें भरे जा रहा है
There is something in everything and everything in something.