एक पर्वत और एक चिड़िया कभी-कभार बात कर लेते हैं,
पर्वत कभी पूछ लेता है कि तू उड़ती रहती तो है हर क्षण पर तुझमें ऊँचाई क्यों नहीं है?
चुगती रहती है तू हर पल दाने पर तुझमें भुख की गहराई क्यों नहीं है?
तेरे घोंसले पे सबकी निगाहें हैं पर तू घबराई क्यों नहीं है?
चिड़िया बोल पड़ती है;
तेरा उठना हवस की कहानी है,
तेरा चोटी अहँकार की निशानी है,
तुझे जल्दी थी अब तू बूढ़ा हो गया है,
मैं जो ठहरा हूँ, ज़िन्दा हो गया हूँ।
तू जला था कभी पेड़ों को उठते देखकर,
तू डरा था कभी समंदर के प्रवाह से,
भागते-भागते तू तन्हा हो गया है,
मैं जो ठहरा हूँ, ज़िन्दा हो गया हूँ।
मेरी उड़ान में तुझे ठहराव नज़र नहीं आया,
मेरी पंखों का तुझे आराम नज़र नहीं आया,
तू विशालता के शिखर पे अन्धा हो गया है,
मैं जो ठहरा हूँ, ज़िन्दा हो गया हूँ!
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