ये लम्हा भी बीत रहा है
ये कैसी ज़िद है तुम्हारी
कि तुम हवा को गिरफ्त करने निकले हो
जिस ज़मीन पे खड़े हो
उसे खिसकना तो हमेशा से ही तय था
एक हाथ तलाश लेते
जो कदम दर कदम तुम्हारा साया बन सका होता
इतनी बेचैनी तेरे पेशानी पे क्यों दिख रहा है?
मालूम होता है तुम अपने आज और अतीत से खुश नहीं दिख रहे हो
कल भी क्या बदल जायेगा
जबकि तुम्हारा अंदाज ही पुराना है!
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