पिछले कुछ दिनों में हमनें मीडिया के माध्यम से, चाहे वो सोशल मीडिया हो, प्रिंट मीडिया हो, या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, अटल जी के निधन पे कई संदेश पढ़ा. हालाँकि सोशल मीडिया में कुछ भी सोशल नहीं दिखता है, मेरे जैसे कई अदृश्य चेहरे हैं जो मिलने पे वास्तव में अजनबी सा मालूम पड़ते हैं पर लाइक और कमेंट वाले स्पेस में बहुत ही सक्रिय दिखते हैं. हाँ, तो मुद्दे की बात ये है की लोगो ने अटल जी के निधन पे बहुत कुछ लिखा. लोगों ने उन्हें अपने अपने तरीके से याद भी किया. राजनेताओं ने अपने स्नेह से भरे किस्से लिखे. पत्रकारों ने एक तुलनात्मक अध्ययन वाले प्रश्न के पन्ने पलटे मानो कोई तुलनात्मक अध्ययन करने वाला शोध का छात्र हो जो आज कुछ नया निकाल कर देगा, कुछ ऐसी बात जो पहले ना कही गयी हो ना ही सुनी गई हो!
ऐसा कहा जाता है की किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पे उनके योगदानों को याद किया जाता है. उनके जुझारूपन और सहनशीलता को समझा जाता है. कुछ कमियां हर इंसान में रह जाती है, यहां तक भगवान के प्रतिरूपण में भी समालोचना, आलोचना की गुंजाइश रहती है तो फिर इंसान क्या चीज है. महान दार्शनिक हीगल का मानना था कि हम कोई एक व्यक्ति नहीं हैं जो हमेशा उसी मनोदशा या अवस्था में होते हैं, बल्कि हर क्षण हम बदल रहे होते हैं, हर क्षण हम एक नया इंसान बनने की राह पे होते हैं. सम्राट अशोक इसका उदाहरण है. बुद्धा या फिर फ्रायड का भी यही मानना था. आख़िरकार जो व्यक्ति जितनी बड़ी जिम्मेदारी सम्भालता है गलती करने का जोख़िम भी उसी का समानुपाती होता है. फ़िर अटल जी उससे अलग कैसे हो सकते थे? पर उनकी कमियों का रखना एक बात है और उसे उठाकर एक चित्र गढ़ देना एक पूर्वाग्रह की निशानी प्रतीत होती है. गाँधी जी का मत था की हमें आलोचना करने का अधिकार उस क्षण मिलता है जब मैं आलोचक के रूप उस व्यक्ति विशेष से जिसकी मैं आलोचना करता हूँ, उससे बेहतर हूँ.
हमें लिखने का और बोलने का हक प्रकृति देती है, हमें ख़ुद को व्यक्त करने की पूरी आजादी है लेकिन इस आजादी पर बंधन उस दिन लग गया था जिस दिन हमनें प्रकृति के आगोश में रहते हुए भी एक समाज की परिकल्पना की थी. समाज आपसी सहमति पे चलता है, राजनीतिक दार्शनिक इसे 'समाजिक संविदा' कहते हैं. मुझे हैरानी और ताज़्जुब नहीं होता है जब मैं स्वतंत्रता के अधिकार और उसके तर्कसंगत बंधन के बीच के तनाव को देखता हूँ. एक तरफ मनुस्य का खुला स्वाभाव है और दूसरी तरफ समाज का बंधा हुआ दर्शन. कुछ वाक्य जैसे की 'बोल की लब आज़ाद है तेरे' काफ़ी रोमांटिक सा प्रतीत होता है, पर किसी के साथ रहते हुए सामंजस्य बिठाना ही समाज का नाम है. ये लब की आज़ादी तो सबको प्यारी है पर आज़ादी और गाली के बीच की लक्ष्मण रेखा भी ज्ञात होनी चाहिए. गाँधी जी का मानना था कि हिंसा कोई शारीरिक बलप्रयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि ये हमारे मानसिकता और शब्दों से भी ज़ाहिर होती है. आलोचना जब खुले मस्तिष्क से की जाय तो कई विशिष्ट दर्शन को जन्म देती है, और जब पूर्वाग्रह से की जाय तो वैमनस्यता और हिंसा की शक़्ल अख़्तियार कर लेती है. सोशल मीडिया को असोशल या फिर लेस सोशल मीडिया बनने से हम रोक सकते हैं अगर हम भावनाओं का कद्र करना सीखें. मेरा अभिप्राय कोई लेक्चर देने का नहीं था, आप सब समझदार हैं!
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