आज रक्षाबंधन का दिन है और मैं लायब्रेरी के एकांत से एक कोने में बैठ कर नोम चोम्स्की का लिखा हुआ एक पत्र, जिसे एक जापानी उपन्यासकार केन्जाबुरो ओ को लिखा गया था, पढ़ रहा हूँ. यह पत्र एक इंसान के अंदर पल रही एक महान उथल पुथल को दर्शाता है. जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पे आण्विक बम गिराया था, एक जश्न का माहौल था उस देश में. नोम को यह जान कर गहरा धक्का लगा था, वे किसी से कुछ भी बोल नहीं पाए थे, बल्कि एक जंगल में बैठ कर घंटो सोचते रहे. आख़िरकार विनाश भी किसी को सुख दे सकता है क्या? जहाँ कितने घर उजड़ गए, कितने सपने दफ़न हो गए, भला उन्हें कुचलकर कैसे सुख पाया जा सकता है? कैसे चैन की नींद आयी होगी. मानव के विकास का यह सच हम सब जानते हैं. पर जानना नहीं चाहते, बस ये तो नकारात्मक बात है ना? क्यों बात करें इसकी!
नोम चोम्स्की कहते हैं कि इन सारी समस्याओं की शुरुआत उस विचार से आती है जो हमें सिखाती है, "अपने बारे में सोचो". इस प्रकार हम अपनी पहचान को इतना छोटा कर लेते हैं कि आखिरकार बस भूल ही जाते हैं कि हम किसी एक समुद्र में यात्रा करने वाले सब पृथ्वीवासी हैं. भला कब तक ख़ुद में सिमटे रहेंगे? कब तक परपीड़ा से आनन्दित होते रहेंगे? हमारा भाग्य तो वह नाव और सहयात्री ही लिखेंगे. इस यात्रा में यातनाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए था. पर हुआ क्या? अफ्रीकी देशों में जब एड्स का प्रकोप बढ़ा और भारत ने सस्ती दवाइयां भेजने को ठानी तो पेटेंट का दांव पेंच आ गया. एक मनुस्य की जान कुछ चंद पैसो के आगे फीकी पड़ गयी. इस विकास के मोडल को क्या कहा जाये? ऐसे मत्स्य न्याय से हमारी दुनिया की दिशा और दशा क्या होगी? क्या सैन्य और आर्थिक बल के आगे लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, और समानता अपना सर झुका लेगी? याद रहे, हम आये हैं और हम जाएंगे पर यह धरती क्या हमें माफ़ करेगी जिसपे हमने विकास के नाम पर विनाश की विजयगाथा लिखी है? आज के विकास को देख कर वो क्लासिकल लिबेरल्स भी रो पड़ते, अगर वो आज यहाँ होते, जिन्होंने स्वतंत्र बाज़ार की नींव मानव कल्याण के लिए डाली थी. इस व्यवस्था के अनुयायी 'ट्रिकलिंग इफ़ेक्ट' के नाम पे ग़रीबी के सापेक्षता के नियम का विश्लेषण करते हैं, उनमें से एक हैं स्टीवन पिनकर, जो हाल ही में 'एनलाइटनमेंट नाउ' नामक पुस्तक में पूंजीवाद को बड़े जोर शोर से डिफेंड किया है. आख़िरकार उन्हें बताना चाहिए कि विश्व के नब्बे फीसदी संसाधनों का भोग कौन कर रहा है? बेरोजगारी की भीषण समस्या में रोज़गार के कैसे स्वरूप विकसित हो रहे हैं? वो बतायेंगे कि फ्री मार्केट ने इंसानों के लिये संभवानाएं पैदा की है! वो उदाहरण के तौर पर स्वतंत्र भारत के उन्नीस सौ नब्बे के पहले का दौर और बाद के समय का लेखा जोखा रख कर यह साबित कर देंगे कि हमारी बातें मिथ्यतामक है. आंकड़ों को हम वैसे ही रखते हैं जैसे रखना चाहते हैं. पर क्या यह सच नहीं है कि राज्य की शक्ति दिन व दिन क्षीण होती जा रही है? और उसकी जगह एक दृश्य हाँथ, अगर हम एडम स्मिथ को थोड़ा संसोधित करके देखें, हमारे जीवन की जीवन कुंडली को लिख रही है? देखना चाहेंगे तो जरूर दिखेगा. मुझे इस वक़्त रूसो का वह पंक्ति याद आ रहा है जिसे उन्होंनें एमिली में लिखा था, "करते धरते कुछ नहीं हैं, बस लगातार शांति की डींगें हांकते रहते हैं और मजे से अपनी बेड़ियों में बंधे पड़े रहते हैं!" हमें याद रखना होगा अपने अतीत को कि आखिरकार साम्राज्यवाद ने दुनिया को क्या दिया? दो विध्वंशक विश्व युद्ध! अगर आप सच में मानवाधिकार को लेकर इतना संवेदनशील हैं तो अतीत से लेकर वर्तमान तक जो गुनाहों का अध्य्याय आपने लिखा है उसे स्वीकार करें. और याद रखें थॉमस जेफ़र्शन का वह अनमोल वाक्य, "पृथ्वी जीवितों की है!" पर इतिहास एक अच्छा मार्गदर्शक हो सकता है!
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