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Showing posts from February, 2020

विश्वास के नाविक

कौन जाने सत्य क्या है? कौन जाने राह क्या है? जब राह का ही पता नहीं तो ग़ुमराह क्या है? कौन जाने आबाद क्या है? कौन जाने बर्बाद क्या है? धरा की मटियामेट लीला में जीवन का होना क्या है? अधिकारों की चंद बस्ति में समाज का होना क्या है? कौन जाने ख़ुद क्या है? कौन जाने ख़ुदा क्या है? जब जानते ही नहीं कुछ फ़िर ये मसलों पे मसला क्या है? बस जीवन है और धारा है, सब कुछ रमता पानी है, आते जाते सांसों पे, चंद संवरती-बिगड़ती कहानी है। जीवन धारता है उस पग को, जो रास्ते बनाना जानते हैं, वो मुर्दे ही होते हैं जो, अभी जीने से कतराते हैं। वो जीवन नहीं अभिलाषा है, जो हर पग की एक बाधा है, कहीं काँटे बन चुभ जाता है, कहीं नागिन बन डंस जाता है। हो गर सच्ची आस्था तो मतभेद क्या? विश्वास के नाविक को दुसरेपन का भेद क्या? समर्पित भाव से पराया भी अपना हो जाता है, जो माँगता नहीं उसे सबकुछ मिल जाता है।

A LIBERAL ART OF SERMONING

Every day is a learned lesson and a part of learning process. Learning, in fact, is a journey, a destiny, a faith. Those, who are willing to learn is a better person from past, and will be better in every possible way. In Greek, Plato philosophized that everything is in process of decaying, and the perfect copy is outside from the domain of time and space. The moment a copy of the perfect form appears in the process of time and space, it's bound to lose its original vigour and strength. It starts dying the moment that copy appears in the domain of time and space. On the other hand, Aristotelean philosophy doesn't accept this premise. Aristotle writes that everything by birth has potentiality, which is realised subject to formal, substantive, efficient, and the final teleological causes. Potentiality is not the perfect copy of original. Potentiality is the beginning. The final cause may be realised or may not be realised. Actuality may differ from the potentiality. What if w

ज़रिया

रहा था कभी मैं भी उजालों के ख़्वाब का क़ैदी, आज रात और दिन के बीच का मैं संध्या हो गया हूँ। जब तक दौड़ता रहा मेरी मंज़िल भी दौड़ती रही, आज मैं ठहर गया हूँ और मैं ही ख़ुद की मंज़िल हो गया हूँ। जब तक पत्थरों से लकीरें खींचता रहा तक़दीर की बातें बेमानी लगी, आज रेखाओं की सीमा लाँघ कर बस पानी का बुलबुला हो गया हूँ। होगा शौक़ किसी और का आँधियों से टकराना, मैं तो बस हवाओं का एक झोंका हो गया हूँ। रोकोगे क्या रुका है क्या? मैं भी एक नए कल का जरिया हो गया हूँ।

प्रेम विसर्जन में ज़िन्दा है

हर एक दिन वो पत्ते जो डाली के शिखर पे झूलते मिलते थे, हवाओं की दिल्लगी में वे होशो-हवाश खो दिया करते थे। आज सुबह देखा वो पत्ते टूट के जमीं पे आ गिरे थे। इतराते पत्ते अक़्सर आँधियों में बिछड़ जाया करते हैं। कुछ निचली डाल पे थे वो आज भी शांत से पड़े मिले, मानों उन्होंने प्रकृति की मौन भरी चादर को ओढ़ ली है। उनके लिए आँधियाँ बस एक छोटी सी घटना बन के आयी थी और वो मौन रह गए। ऐसे कितने तूफान को एक शांत मन निगल सकता है? जड़ को कभी देखा भी नहीं, दिखे भी कैसे मातृत्व दिखता नहीं, महसूस किया जा सकता है। क्या जड़ को कभी झूमने की चाह नहीं हुई? क्यों पड़ा रहा मिट्टी में पूरी ज़िन्दगी भर जबकि उसके सींचे हर डाल को बुलंदी पे जाने का अवसर मिला? जड़ को शायद ये एहसास था कि सृजनता प्रेम है, और प्रेम को प्रदर्शन की क्या आवश्यकता? वो ख़ुद के विसर्जन में ज़िन्दा है, समर्पण में ज़िन्दा है।

I'm a Practical Man, you know. What about You?

I'm a practical man, you know. What about you? I don't really like any philosopher or scientist. Do you know what I mean? I don't have any vision for the world. I know that the World itself is taking care of itself. Why to bother or to waste time in thinking? Practically, thinking kills our spirit of amusement! Why to read, if it is profitable to save time for insatiable earnings? Why to listen philosophers or poets? They didn't understand a simple lesson that life is lived not thought! Pity to those people who are obsessed for knowledge. They must open eyes and pay heed to one of the greatest philosophers of all time, Immanuel Kant. He believed that the "thing in itself" is unknowable. All our "knowledge are human knowledge". Knowledge is as childish as a toy of a zealous child. I prefer not to play with these toys. I'm a practical man, you know. What about you? I'm successful. I'm earning and thinking about it all the

अंदाज़-ए-बयां

बदल गया है अल्फाज़ अब कहाँ नूर-ए-बयां होता है? शब्दों के पंख को लगा है जमाना कतरने में। आज़ाद ज़िस्म है मगर रूह ख़ुद के गिरफ़्त हो चला है, बेबाक़ बोल भी कुछ इस कदर लगा है बिसरने में। बदल दोगे अन्दाज़ अगर दूसरों के हिसाब से, हर एक क़दम ज़िन्दगी की ठोकर सी लगेगी। भला कौन बता पाया कि ज़िन्दगी कैसे जिया जाए? हर एक की कहानी अनसुलझी ही लगेगी। चलोगे सफ़र में तो तन्हाई भी चलेगी, भीड़ बनने से ख़्वाब मुकम्मल नहीं होता। छोड़ जाते हैं अक़्सर लोग पद्चिन्हों के निशान, उन रास्तों पे गुजरने से मंज़िल पूरा नहीं होता।