हर एक दिन वो पत्ते जो डाली के शिखर पे झूलते मिलते थे,
हवाओं की दिल्लगी में वे होशो-हवाश खो दिया करते थे।
आज सुबह देखा वो पत्ते टूट के जमीं पे आ गिरे थे।
इतराते पत्ते अक़्सर आँधियों में बिछड़ जाया करते हैं।
कुछ निचली डाल पे थे वो आज भी शांत से पड़े मिले,
मानों उन्होंने प्रकृति की मौन भरी चादर को ओढ़ ली है।
उनके लिए आँधियाँ बस एक छोटी सी घटना बन के आयी थी और वो मौन रह गए।
ऐसे कितने तूफान को एक शांत मन निगल सकता है?
जड़ को कभी देखा भी नहीं, दिखे भी कैसे मातृत्व दिखता नहीं, महसूस किया जा सकता है।
क्या जड़ को कभी झूमने की चाह नहीं हुई?
क्यों पड़ा रहा मिट्टी में पूरी ज़िन्दगी भर जबकि उसके सींचे हर डाल को बुलंदी पे जाने का अवसर मिला?
जड़ को शायद ये एहसास था कि सृजनता प्रेम है,
और प्रेम को प्रदर्शन की क्या आवश्यकता?
वो ख़ुद के विसर्जन में ज़िन्दा है, समर्पण में ज़िन्दा है।
हवाओं की दिल्लगी में वे होशो-हवाश खो दिया करते थे।
आज सुबह देखा वो पत्ते टूट के जमीं पे आ गिरे थे।
इतराते पत्ते अक़्सर आँधियों में बिछड़ जाया करते हैं।
कुछ निचली डाल पे थे वो आज भी शांत से पड़े मिले,
मानों उन्होंने प्रकृति की मौन भरी चादर को ओढ़ ली है।
उनके लिए आँधियाँ बस एक छोटी सी घटना बन के आयी थी और वो मौन रह गए।
ऐसे कितने तूफान को एक शांत मन निगल सकता है?
जड़ को कभी देखा भी नहीं, दिखे भी कैसे मातृत्व दिखता नहीं, महसूस किया जा सकता है।
क्या जड़ को कभी झूमने की चाह नहीं हुई?
क्यों पड़ा रहा मिट्टी में पूरी ज़िन्दगी भर जबकि उसके सींचे हर डाल को बुलंदी पे जाने का अवसर मिला?
जड़ को शायद ये एहसास था कि सृजनता प्रेम है,
और प्रेम को प्रदर्शन की क्या आवश्यकता?
वो ख़ुद के विसर्जन में ज़िन्दा है, समर्पण में ज़िन्दा है।
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