रहा था कभी मैं भी उजालों के ख़्वाब का क़ैदी, आज रात और दिन के बीच का मैं संध्या हो गया हूँ।
जब तक दौड़ता रहा मेरी मंज़िल भी दौड़ती रही,
आज मैं ठहर गया हूँ और मैं ही ख़ुद की मंज़िल हो गया हूँ।
जब तक पत्थरों से लकीरें खींचता रहा तक़दीर की बातें बेमानी लगी, आज रेखाओं की सीमा लाँघ कर बस पानी का बुलबुला हो गया हूँ।
होगा शौक़ किसी और का आँधियों से टकराना,
मैं तो बस हवाओं का एक झोंका हो गया हूँ।
रोकोगे क्या रुका है क्या? मैं भी एक नए कल का जरिया हो गया हूँ।
जब तक दौड़ता रहा मेरी मंज़िल भी दौड़ती रही,
आज मैं ठहर गया हूँ और मैं ही ख़ुद की मंज़िल हो गया हूँ।
जब तक पत्थरों से लकीरें खींचता रहा तक़दीर की बातें बेमानी लगी, आज रेखाओं की सीमा लाँघ कर बस पानी का बुलबुला हो गया हूँ।
होगा शौक़ किसी और का आँधियों से टकराना,
मैं तो बस हवाओं का एक झोंका हो गया हूँ।
रोकोगे क्या रुका है क्या? मैं भी एक नए कल का जरिया हो गया हूँ।
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