सवाल कई हैं पर जवाब एक भी नहीं मिलता,
ये भी भला कोई जवाब है जो अगले पल ही सवाल बन जाता है,
सवालों के चरित्र पे गौर फरमाइए तो एहसास होगा,
ये तर्क में उलझे पड़े हैं।
ये तर्क के पर्दे हैं कुछ भी उतार दीजिये साहब,
रंग चढ़ जाता है!
सही-गलत की आयतें कुछ इस क़दर लिखी जाती है,
मानो सहूलियत का समान हो।
किसी ने कहा है;
गर सवाल करना सीख गए तो जवाब ख़ुद ही ढूंढ़ लोगे,
पर सवाल ये है कि सवाल निखारने का हुनर कहाँ से लाऊँ?
बचकाने सवाल ही असली सवाल हैं!
बूढ़े मन के पके सवाल दुनिया-दारी में उलझे मालूम होते हैं।
जब तक रोटी के सवाल बने रहेंगे,
सवाल गूँगे ही रहेंगे!
ये भी भला कोई जवाब है जो अगले पल ही सवाल बन जाता है,
सवालों के चरित्र पे गौर फरमाइए तो एहसास होगा,
ये तर्क में उलझे पड़े हैं।
ये तर्क के पर्दे हैं कुछ भी उतार दीजिये साहब,
रंग चढ़ जाता है!
सही-गलत की आयतें कुछ इस क़दर लिखी जाती है,
मानो सहूलियत का समान हो।
किसी ने कहा है;
गर सवाल करना सीख गए तो जवाब ख़ुद ही ढूंढ़ लोगे,
पर सवाल ये है कि सवाल निखारने का हुनर कहाँ से लाऊँ?
बचकाने सवाल ही असली सवाल हैं!
बूढ़े मन के पके सवाल दुनिया-दारी में उलझे मालूम होते हैं।
जब तक रोटी के सवाल बने रहेंगे,
सवाल गूँगे ही रहेंगे!
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