सोचते क्यों हो कि आएगी एक दिन नई नवेली सुबह
जब पत्तों का रंग एक ही होगा
मानों धरा की बसंती चाह
जैसे किसी मानव ने ली यह सोच कर वैराग्य
कि हो जाएगा एक दिन ईश्वर से साक्षात्कार
वो दिन, कौन सा दिन, पहचानोगे भला कैसे
कि इसी दिन की थी दरकार
और ईश्वर भी अगर मिल जाएंगे
कोई भँवरा बन बगिया में
तुम भला जानोगे कैसे
कि इसी ईश्वर की थी चाह
आज अभी-अभी कुछ बीत गया
और नवीन क्या पाओगे
जिस सवेरे की चाह में निकले थे
उसे हर घड़ी अपने ही आँगन में पाओगे
जिस ज्ञान की चाह में बुद्ध लिए संन्यास
उसी ज्ञान को कबीर ने किया
गृहस्थ में आत्मसात
दूर-सुदूर की बातें और क्या
मानव-मन की तृष्णा है
जैसे मणि की खोज में मृग
कितने पंथों में भटका है
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