मुक़म्मल बादल भी कहां है अम्बर में,
पर्वतों की अकड़ से जो गुजरना होता है उसको।
धुँए की स्याह लिये कभी संवरता है, कभी बरसता है,
कभी महताब की लालिमा में निखर जाता है।
बेरंग और बेआकार सा,
कुछ बनने की हद नहीं है उसमें,
सीमाओं की जकड़न जिसे बाँध ना सके,
तैरता है हवा के संग में।
मेरे कुछ होने का एहसास,
जो तुम इस क़दर दिलाते हो।
मेरी पहचान का आस्तित्व ही क्या,
जिसमें मिट जाने का हुनर ना हो।
कोई रूप ऐसा लेकर आओ,
सिमटता जहाँ दर्पण हो।
पहचान बनाते मिट्टी में,
कोई अमरता का वर हो तो लाओ।
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