महात्मा गाँधी के जीवन दर्शन पे कई संगोष्ठीयां हो रही है. इरफ़ान हबीब साहब ने इंडिया इंटरनॅशनल सेन्टर में आयोजित एक लेक्चर सीरीज में गाँधी के जीवन दर्शन और उनके प्रैगमैटिक स्प्रिचुअलिस्म पे प्रकाश डाला. रामचंद्र गुहा साहब ने गाँधी पे एक और महाग्रंथ रच डाला है. गाँधी पे क़रीब सौ वोलुम्स में पहले से कमेंट्रीयां लिखी जा चुकी है. इन सबके वाबजूद गाँधी आज हमारे बीच नहीं हैं. उनका सरनेम चारो दिशाओ में गूंज रहा है. सेक्सपियर साहब चूक कर गए यह कर की नाम में क्या रखा है! कई बार नाम वो कमाल कर पाती है जो व्यक्तित्व भी नहीं कर पाती. गाँधी कोई एक दृष्टि नहीं थे; उन्होंने ज़िन्दगी को सीखने की कसौटी पे रखा. वो ब्रितानी वेशभूषा और ज्ञान को समझा और फिर नकार दिया. उसे अनलर्न कर गए. गाँधी एक वैचारिक आन्दोलन थे जिन्होंने भारतीय समाज को इतिहास के गर्भ से समझने की कोशिश की, और वर्तमान की नज़र से दीदार किया. उनकी समझ से प्रेरणा लेकर कई गाँधीवादी बने पर दूसरा गाँधी क्यों नहीं आया? गाँधी आजकल के स्कूली शिक्षा के उपज नहीं थे; बल्कि उस विपदा की उपज थे जिसमें भारतीय को उसके गरिमा से वंचित किया गया था. आज की शिक्षण व्यवस्था एक डॉक्टर, वक़ील, या फिर इंजीनियर पैदा कर सकता है; गाँधी नहीं. गाँधी ने मशीनी सोच को तिलांजलि दी. पैसा को जरूरत के संदर्भ में देखा. विज्ञान को मशीनीकरण करने वाली विद्या के रूप में देखा. आधुनिकता के विरोधी के रूप में देखे गये. उनके आदर्श गांव की परिकल्पना को यूटोपियन बताकर तिरस्कृत किया गया. भारत किसी साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक हिस्सा भी हो इस सोच मात्र के वो विरोधी रहे. गाँधी आज होते तो हमारा भारत कैसा भारत होता? आज विश्व शान्ति दिवस के मौके पे उन्हें याद करना उस भारतीय परंपरा को याद करना है जिसने मानवता को बुद्ध दिया. गाँधीवादी छाया में आज फलित होने का वक़्त नहीं है. आज नये पौधे बोने और सिंचित करने का समय है; जो जहरीली हवाओं से लोहा ले सकेे. 21वी शताब्दी का गाँधी 19वी और 20वी शताब्दी से अलग होना चाहिये. क्योंकि हर एक दृष्टिकोण की उपज दृष्टि से होती है. आज गाँधी के जन्मदिन पे उनके कुछ लेख को पढ़ना और आत्मचिंतन करना एक अच्छा विचार हो सकता है. वैसे आँख मूंद कर अनुमान लगाने वाले लोग यह ज़हमत नहीं उठायेंगे. धन्यवाद!
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
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