यादों के साये में अक़्सर एक तस्वीर दिखा करती है,
जिसे बचपन ने अपने हाथों से सजाया था।
अब समय की आभा ने हर दिशा में अंधेरे की रौशनी फैला रखी है।
तस्वीर तो आज भी लिये घूमता हूँ,
फर्क बस इतना है कि इस तस्वीर के रंग मेरे नहीं हैं।
किसी की कल्पना में क़ैद हो जाना,
किसी के विचारों का क़ैदी हो जाना,
इन्सान आज स्वच्छंद कहाँ है?
विचारशील और बेबाक कहाँ है?
नीलाम क़लम लिखते हैं आज,
तोतें जैसी बोलियां बोली जाती है,
विचारों की तारतम्यता में,
सत्य की खोज पीछे रह जाती है।
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