अधिकार और कर्तव्यों पे आये दिन व्याख्यान सुनने को मिलता है। अक्सर छात्रों से बात भी होती रहती है। मैंने विश्व व्यवस्था को अधिकारों के नारों में झुलसते देखा है। मानवधिकार के छद्म रूप में कॉरपोरेट के पदार्थवादी चरित्र को उभरते देखा है, जिसने मानवाधिकार के चरित्र को मानव से विस्थापित कर विधिक मानव के लिये समर्पित कर दिया है। आज के समय में महामानव की परिकल्पना में विधिक जनित मानव ने सर्वोत्तम स्थान हासिल किया है। ऐसी व्यवस्था को हम विल टु राइट कह सकते हैं, जहाँ अधिकारों की बाज़ी लगी है, और हर कोई कर्तव्यों से पीछा छुड़ाना चाहता है। आप क्रिमिनल लीगल सिस्टम को ही देख लीजिए, हर कोई अपने अधिकारों की बात न्यायालय के समक्ष करता है, पर कभी किसी ने न्यायालय से अपने कर्तव्यों की बात की? ये बताया कि हम अपने कर्तव्यों की माँग करते है? नहीं, अधिकारों में झुलसते बच्चे सड़क पे उतर कर नारे लगाते नज़र आते हैं, "हमारी माँगे पुरी करो"! दूसरी तरफ के लोग भी यही नारे लगाते नज़र आते हैं। होहफेल्ड के अधिकार-उन्मुख विचारों ने समाज की रूप रेखा को बिखरी हुई व्यवस्था बना दिया है जहाँ से समाज अशांति के पथ पे अग्रसर मानसिक और शारीरिक हिंसा का शिकार हो रहा है।
थोरो, गाँधी, इमर्सन जैसे विचारकों ने स्वालम्बन के गुणों को अपने जीवन में उतारा था। जिससे अधिकार-कर्त्तव्य के दोमुखी द्वंदता से बाहर निकला जा सके। ना अधिकार ना कर्तव्यों की बात की जाए। क्यों नहीं जीवन को समग्रता में देखी जाये? जीवन एक बड़ी घटना है। एक चमत्कार है। इसके वास्तविक चरित्र को समझा नहीं जा सकता। इसे जीया जा सकता है। अधिकारों की मांग ने पूरी दुनिया में तनाव पैदा किया। अधिकारों में बुनी गयी व्यवस्था एक ठोस सामाजिक व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर सकती। आज हमें मानव-निर्माण की परिकल्पना को नए तरीके से देखने की जरूरत है, जिसमें शिक्षा व्यक्तित्व के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभा सके। शिक्षा को सिर्फ नौकरी पाने की कला तक बाँधा ना जाये। समाज की परिकल्पना को कमजोर होते देख बहुत दुःख होता है। और ऐसे हालात में हम अधिकारों के लम्बी लिस्ट बढ़ाते जा रहे हैं। कर्तव्य कहाँ है, ढूंढ़ना चाहें भी तो कहाँ खोजें? क्योंकि कर्तव्यों को ढूढ़ने बाहर नहीं जाया जाता है। कर्तव्यनिष्ठा समाज की कड़ी है। कर्तव्यनिष्ठा व्यक्तित्व की अहम कड़ी है, जो हमें एक जवाबदेहिता से सुसज्जित व्यक्तित्व की परिकल्पना को साकार करती है। पश्चिमी सभ्यता ने मानव समाज को अधिकारों का अनोखा दान दिया। जिसे ग्रहण कर हम गौरवान्वित महसूस किए, पर ऐसा क्या है कि अधिकारों की भूख बढ़ती गयी पर व्यक्तित्व छोटा होता गया। अधिकारों की बातें बढ़ती गयी पर अधिकार सिकुड़ते गए। क्रांति के नाम पर निर्दोष की जान जाती रही पर विश्व शान्ति के लक्ष्य दूर जाते रहे। अधिकारों ने हमें पक्ष-विपक्ष के द्वंद में खड़ा किया जहाँ से पक्षरहित समाज पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा था। हमनें आलोचना करना सीखा, संदेह करना सीखा, विवाद करना सीखा, और उससे निर्मित रिश्ते कागज़ के फ़ूल ही साबित हो सकते हैं, जो दिखने में खूबसूरत हो पर जिसमें कोई सुगंध नहीं। हमने लेफ्ट-राइट-सेंटर की लड़ाइयाँ देखी पर जो ब्रहाण्ड के अपार गहराई को जी सके ऐसे विचार हमारे मस्तिष्क में आहट दे ना पाया। राजनीति का आरिस्टोतालिय विचार "वोकेशन फ़ॉर पोलटिक्स" (वेबर) के विचार से प्रेरित था, हमनें इसे "वोकेशन ऑफ पॉलिटिक्स" में कैद कर दिया। राजनीति का मकियावेलियन दर्शन राजनैतिक दुर्दशा की तस्वीर हो सकती है। सच्ची राजनीति आज भी ख़ुद के कर्तव्यनिष्ठा से हो सकती है, अधिकारों से नहीं!
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