शिक्षा व्यवस्था को लेकर अक़्सर बातें होती रहती है। व्यवस्था का बनना और बिखरना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। दुनिया के किसी भी व्यवस्था को समझने का प्रयास किया जाए, एक बात निश्चय ही निकल कर आयेगी कि वो व्यवस्था सम्पूर्णता के शिखर से दूर ही रही थी। क्योंकि सम्पूर्णता के पैमाने एक नहीं हुआ करते। सम्पूर्णता का निर्माण समाज की रीतियाँ और उसके सांस्कृतिक विरासत तय करते हैं। हम अक़्सर आधे-अधूरे विचारों से समावेशी विचारधारा नहीं बना सकते। उसके लिये निरंतर अध्ययन और विरोधाभासों से लड़ना होता है। सम्पूर्णता एक प्रक्रिया है, कोई समापन नहीं जिसे सदा के लिये प्रतिस्थापित किया जा सके!
शिक्षा और उससे जुड़ी व्यवस्था का मूल्यांकन उसके नौकरी देनेवाली क्षमता से करना न्यायोचित नहीं हो सकता। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य निर्माण, विखंडन, एवं पुनर्निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त करना है। शिक्षा अंधकार में प्रकाश की ओर अग्रसर करने का सर्वोच्च माध्यम है। शिक्षा जीवन है। शिक्षा स्वतन्त्रता है। शिक्षा से मूल्यवान सम्पदा एवं मूल्य मनुष्य ने अभी तक विकसित नहीं किया है। और नाही किया जा सकेगा। पर ऐसा क्या कारण है कि शिक्षा आज के समय संस्कृति के विरुद्ध जाती दिख रही है? समाज परिवर्तन में क्या हम विकसित हो रहे हैं, या हमारे विकास के मापदंड हमे शान्ति और सुख से दूर लिये जा रहा है? हर तरफ स्वार्थ के लिये ऊँची बोलियां बोली जा रही है। विश्वास करना हमारे संस्कार में पीछे छूट गया है। हमारी शिक्षा ने हमें सन्देह करना सिखाया है। निरंतर सन्देह और उससे उपजी मानसिकता ने समाज की परिकल्पना पे कुठाराघात किया है। आज कर्तव्यनिष्ठा की जगह अधिकारों का माला लिए हर कोई घूम रहा है। पर अधिकार को कमाने के लिए कर्त्तव्य की बात करना आज हर किसी के बस की बात नहीं है। ऐसे समय में क्या ये कहना सही होगा कि शिक्षा और उससे उपजती दशाएं और दिशायें मनुष्य निर्माण नहीं मशीनीकरण के पथ पर अग्रसर है? शिक्षा का उद्देश्य शान्ति को उपलब्ध होना नहीं है? आज शिक्षा हमें एक साँचे में ढ़ालने का माध्यम बनती जा रही है। ऐसे समय में हमें मानव और उससे जुड़ी स्वतंत्रता विचारों के निर्माण में शिक्षा के वर्तमान प्रारूप पे पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। शिक्षा कोई औद्योगिक खाद्य पदार्थ नहीं है। नाही सर्टिफिकेशन का एक माध्यम है। शिक्षा से जुड़ी किसी भी मैनिफेस्टो में गर मनुष्य गायब है तो वो नीति भला कैसी नीति हो सकती है? और न्याय से तो वो तो कोसों दूर ही रहेगी। शिक्षा के संकल्प को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य से जुड़ी संस्थाओं पे अंधा समर्पण उचित नहीं है। शिक्षा जागरण का अग्रदूत बनने के लिए शिक्षा से जुड़ी व्यवस्थाओं को स्वायत एवं मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना होगा। शायद बाज़ारीकरण के अंधाधुंध अनुकरण ने हमारी व्यवस्थाओं को एक विशेष दिशा में बढ़ने को प्रेरित किया है। जहाँ रोज़गार के सारे विकल्प औद्योगिक आवश्यकताएँ एवं बाज़ार के सीमित विकल्प के इर्दगिर्द घूमते हैं। ऐसे 'पैकेज संस्कृति' में क्या हम रोजगार के स्वायत्त विकल्प को ढूंढ़ सकते हैं जो मानवीय मूल्यों से जुड़े अवसर प्रदान करे? सरकारी नौकरी और उससे जुड़ी तमाम चाहत ने युवाओं को कमज़ोर किया है। समाज की परिकल्पनाऐं हमारी क्षमतओं को प्रभावित करते हैं। कोई भी समाजशास्त्र का विद्यार्थी इस बात से परिचित होगा कि सामाजिक परिकल्पनाओं ने मनुष्य के उत्थान और पतन में अग्रणी भूमिकाएं निभायी है। सामाजिक परिकल्पना अगर अपनी दिशा भूतलक्षी रखता है तो वो समाज इतिहास के साये में शदियों जी जाता है, इस विश्वास में कि उसका स्वार्णिम समय बीत चुका है! वहीं ऐसी परिकल्पनाएँ जो भविष्य के गर्भ को निहारती हो। जो विवेकी और प्रगतिशील हो। एक महान सभ्यता का निर्माण करती है। हमें आज तय करना होगा कि 22वीं शदी का भारत कैसा होगा? पैसे और शक्ति के पीछे भागता हुआ अंधा मशीन या फ़िर विश्व कल्याण को ह्रदय में सहेजे मूल्यवान मानव जिसपे आने वाली पीढ़ियां फ़क्र करे, नाज़ हो ऐसे महान मानव पे जिसने ख़ुद से ऊपर उठकर पृथ्वी और ब्रह्मंड के चरित्र को समझा, जीया, और अपने विशिष्टता को चरितार्थ किया!
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