पूर्वजों ने कहा था आदान-प्रदान करो,
पर हम व्यापारी हो गए।
इतिहास ने कहा था न्याय करो,
पर हम वकील, न्यायधीश, और वादी हो गए।
परिस्थितियों ने कहा था सँजो कर रखो,
पर हम पूंजीवादी हो गए।
व्यक्ति-मूलक संघर्ष ने सिखाया था समाज बनो,
पर हम समाजवादी हो गए।
बापू ने सिखाया था सत्य का मार्ग ढूंढ़ो,
पर हम गाँधीवादी हो गए।
हृदय ने आवाज लगाई थी उदारता से स्नेह करो,
पर हम उदारवादी हो गए।
सभ्यताओं का जन्म हुआ था जन-कल्याण के लिए, पर हम उपनिवेशवादी हो गए।
धर्म एक संकल्प था जीवन की खोज,
पर हम धर्मों के नाम पे विवादी हो गए।
मानव मूल्य नहीं आस्था की खोज थी,
पर हम प्रेम भूल मानववादी हो गए।
राष्ट्र की अभिव्यक्ति थी जन-जन की अभिव्यक्ति, पर हम जन को भूल राष्ट्रवादी हो गए।
विचारधारा का मूल था विचारों की धारा,
पर हम जड़-विचारों के पुजारी हो गए।
बेहद सूत्रात्मक कविता सर। बहुत पसंद आई।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रशांत जी!!
Delete🙌👌🌼
ReplyDeleteधन्यवाद!
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