विस्मयकारी मानव मन हर घटना को विस्मय की नज़र से देखता है मानो कभी हुआ ही नहीं, और कभी होगा ही नहीं। इतिहास को भूल जाता है। भूल जाता है अपने कल को, वर्तमान को जिये बिना भविष्य के सुनहरे ख़्वाब बुनता रहता है। वास्तव में भविष्य कही है ही नहीं। भविष्य मस्तिष्क में है। जो बीत गया वो सच है और जो बीत रहा है वो सच है, जो बीतेगा वो सच्चाई नहीं है। हम स्थिरता को इतना चाहते हैं, क्यों? क्योंकि हमारा जीवन कभी स्थिर नहीं रहा, और स्थिरता हमारा स्वप्न हो गया, एक इच्छा जो हमारे "सामुहिक अवचेतन" का हिस्सा हो गया है। हम डरते हैं नए लोंगो से मिलकर कि पता नहीं अमुक व्यक्ति कैसे व्यवहार करेगा। हमें अनिश्चितता सताती है, डराती है। हम ढँकी हुई दीवारों से सुसज्जित महल में रहना पसंद करते हैं, जिससे हमारी हक़ीक़त निजता का एक हिस्सा बनकर ढँकी रहे। निजता के गढ़े हुए पैमाने इस बात के प्रमाण हैं कि हमनें समाज की परिकल्पना तो की पर समाज नहीं बनाया। समाज के आवरण में विस्मित मनुस्य पैदा हुए जो बदलाव से डरते हैं। उन्हें ज़िन्दगी को आदतन जीने की इक्षा है। जिसमें जीवन की अनिश्चितता भरा सत्य उनसे दूर रहे। पर सच्चाई अस्थायी है, और जिसका मन इस बदलते परिदृश्य को स्वीकार करता है, वे बदलाव स्वीकार करते हैं। वो किसी पहचान और विचारधारा में ना बंधकर खुद को मिटाते-बनाते हैं, सीखते-सिखाते हैं। मानव जाति के विकास को समर्पित विचारकों ने इस सत्य को स्वीकार किया। और मानव-जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाये। हमारा भविष्य इस बात पे निर्भर करता है कि हम बदलाव को किस रूप में देखते हैं। बदलाव कोई मूल्य-निर्णय के विषय-वस्तु नहीं हो सकते है। वो सत्य है। और सत्य कभी अच्छा-बुरा नहीं होता।
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
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