मानव के इतिहास की विजय गाथा लिखने वाले मानव मन को बार-बार प्रकृति ये सोचने का अवसर देती है। प्रकृति बतलाती है कि तुम्हें विजय के गौरव में यकीन हो सकता है, पर सवाल ये है कि तुम जीते हो या मैं जीता हूँ? तुम हारे हो या मैं हारता हूँ? इतनी मार्मिकता, इतना भय किस बात की? जबकि तुम विजेता कहलाते हो? तुम्हारे तर्क, तुम्हारे विचार इतने लाचार क्यों नज़र आते हैं? जबकि पृथ्वी के काल-खण्ड के एक छोटे से हिस्से में तुमने जो ज्ञान-विज्ञान की शानदार दुनिया बसायी है। समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था, एवं वैश्विकरण की कहानियां के ताने-बाने बुने गए। इसके बावजूद तुमने ख़ुद को अलग-थलग पाया, क्यों? जीवाणु और विषाणु के अत्याचार से ज्यादा मनुष्य को धर्मान्धता, अंधविश्वास, जड़ता, हिंसक स्वार्थसिद्धि से खतरा है। उत्तर-आधुनिक युग में मनुष्य ने बाज़ारवादी व्यवस्था में ख़ुद को उपभोक्ता भर मान लिया है। जिसे सुबह से लेकर शाम तक इस बात की फ़िक्र होती है आज अपने समय को कैसे कंज्यूम किया जाए। इस विकाशवादी सोच में मनुष्य अपने कहानियों को गढ़ता है, किरदारों के भविष्य को बनाता-मिटाता है, मानो ज़िन्दगी बचपन के गुड्डे-गुड़िया का खेल हो। इस खेल में जीवन के सर्वांगीण विकास की संभावनाएं पीछे रह जाती है। आधुनिकता की आधारशीला ही प्रकृति-विजय की मानसिकता को दर्शाती है। आप डेकार्ट और बेकन के दर्शन को लीजिये, या फिर कांट के ट्रान्सेंडैंटल विचार को, जो मनुस्य को एक संजीदा कहानीकार का दर्जा देता है, और जो मिथ्याओं के शानदार रेशनल कहानीकार हैं। मिथ्याओं के इस बाज़ार में कुछ कहानियों के दुकानदार और कुछ ख़रीदनहार मिल जाते रहे हैं। आज के 'पोस्ट-मॉडर्न' संस्कृति ने आधुनिकता के मिथ्या-सत्य को बखूबी सामने रखा। चाहे ल्योटर्ड हो, रोलां बार्थ हो, फूको या फिर देरिदा हो। हाँ, गाँधी और टॉलस्टाय के आधुनिकतावादी समझ को अलग दर्जे में रखा जा सकता है।
अब भला इस उत्तर-सत्य के युग में जीवन को कैसे देखा जाए? इस विडंबना को किरकेगार्ड ने बखूबी बयां किया है। वह कहता है कि मनुष्य का आधुनिक युग क्या है? मनुष्य अनंत संभावनाओं में ऐसा फँसा हुआ है मानों करने को तो सब कुछ है पर किया क्या जाए इस निर्णय में ही पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है। दूसरी तरफ "पैराडॉक्स ऑफ फिनिटी" है जहाँ एक बार हम कुछ हासिल किए तो पूरी ज़िन्दगी उसी के धुन्ध में सिमट से जाते हैं, सात्र के शब्दकोष में इसे "नौसिया" कहा जाता है। हम आजीवन डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, राजनेता बन कर रह जाते हैं। वो हमारी पहचान बन जाती है, मानो वही बनने के लिए हमारा अवतार हुआ था! हम ऐसे वैज्ञानिक युग में रहते हैं, जिसमें विज्ञान का मतलब बस पदार्थों के बनती-बिगड़ती दुनिया को ही विज्ञान का अर्थ समझा जाता है। समाजिक विज्ञान को विज्ञान बस कहने को ही कहते हैं। ऐसे समय में जीवन के प्रति प्रेम कैसे विकसित किया जाए? इस सवाल का कोई उत्तर नहीं मिलता है। हाँ, तलाश जारी रहनी चाहिए।
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