सुना था कभी शहर तेरे बारे में,
कि तू कई रंगों से बना है,
आज तेरे हर एक रंग से रूह ग़ायब है।
तेरे ज़िन्दा होने का सबूत माँगना पड़ता है,
और गवाह भी मिलते हैं शोर-गुल से सने टेलीविजन के छाया-चित्रों से,
जहाँ पे ख़ुद से अंजान मनीषि बातों के तैराक मालूम होते हैं,
बात की गुंजाइश तो तभी रहती है जब कुछ छिपाना हो!
कैसा महसूस होता होगा किसी के सहर का गुम हो जाने में?
शायद ये जानने की तलब भी अब बाकी ना रही तुझमें।
तेरे हर एक व्यस्त क़दम में नींद की धुंध छाई है,
कभी ठहर के देखे होते अपने अनोखे संध्या को,
और आसमान में तैरते बहुरंगी बादलों को,
जिसके बेआकार काया में आफ़ताब का वजूद अभी भी ज़िन्दा है।
कभी शान्ति का क्षण तलाश लेते तारों के छाया में,
जिसके वजूद मात्र से कई और सहर महफ़ूज होता होगा।
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