Portrait Source: Rene Magritte (The Artling)
हमारे सन्सार में दृश्य का महत्वपूर्ण स्थान है। हम सब दृश्य हैं। अंग्रेजी में इसे "एक्जीबिशन" कहते हैं। हम सब कुछ दिखाने, कुछ बताने, और कुछ समझाने की ललक मात्र हैं। हमारे अस्तित्व की धार दिखने और दिखाने पे अक़्सर निर्भर करती है। पर क्या होता है जब कोई देखने वाला ना मिले? फिर दिखाना समाप्त हो जाता है। जब कोई सुनने वाला ना मिले, तो बताने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। जब कोई उलझन ही ना बचे, फ़िर समझाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। जब "ऑब्जेक्ट" ही ना रहे, तो सब्जेक्ट की परिकल्पना भी नहीं हो सकती। नागर्जुन का दर्शन इसे "शून्यवाद के सिद्धांत" से नवाज़ता है। जहाँ सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों ना रहे। स्वाभाविक सी बात है कि एक के ना होने से दूसरा भी समाप्त हो जाता है। दृश्य के ना होने पर दर्शक का क्या काम? दर्शक जन्म लेता है दृष्य से। दर्शक और दृश्य के द्वंद को संसार कहते हैं। भारत के प्राचीन सभ्यता में संसार को लेकर गहरा चिंतन मिलता है। उपनिषद, जिससे वेदांत की उत्पत्ति होती है, संसार को मिथ्या मानता है। मानो संसार एक असीम ऊर्जा की परिकल्पना मात्र हो। मानो एक दिवास्वप्न हो, जिसमें घटती सारी घटनाएं और पात्र सत्य मालूम पड़ती हो, पर जागते ही सब कुछ एक कल्पना मात्र में तब्दील हो जाता हो। वेदांत के अद्वैत दर्शन को समझना कठिन हो जाता है, बल्कि कहा जाए तो इसे कभी समझा नहीं जा सकता है, महसूस किया जा सकता है भावना के तल पर। क्योंकि मानस-मस्तिष्क इसे देख नहीं सकता, तो संदेह का उठना लाज़िमी है। सन्देह के कारण ही मस्तिष्क से द्वैत का जन्म होता है। जहाँ दृश्य और दर्शक उभरते हैं। जहाँ पदार्थ और ऊर्जा का द्वैत सामने आता है। यह सत्य है कि हमें पदार्थ का अनुभव होता है और ऊर्जा का भी। फ़िर संसार मिथ्या कैसे हो सकता है? और अगर ये स्वप्न जैसा है, तो इसे आभास कैसे किया जा सकता है? बिना प्रमाण के इसे स्वप्न कैसे माना जा सकता है?
बुद्ध ने कहा था हर-तरफ सिर्फ दृश्य है, कोई दर्शक नहीं। दर्शक होना एक मिथ्या मात्र है। हमारे ज्ञान-विज्ञान से विचारों का जन्म हुआ है। लॉजिक की संरचना की गई है, और विचार इनके खण्डों से निर्मित एक टुकड़ा है, जो कलटिवटेड है, जो आदतन एक "झूठे मैं" से अवगत कराता है। विचारों से ही दृश्य देखी जाती है। अगर विचार ना हो तो कोई दर्शक नहीं है, दर्शक विचारों का संग्रह मात्र है। और अगर दर्शक ना हो तो दृश्य का क्या औचित्य है?
बुद्धिस्ट साहित्य में दिङ्नाग का उल्लेख है, जिन्होंने संसार को "निर्मित सत्य" (cultivated reality) माना था। यानी हमारे मन-मस्तिष्क में उभरी बातों का बाहरी दुनिया के सत्य से कोई संबंध नहीं है। बाहरी दुनिया का सत्य हर पल बदल रहा है। उसका कोई सार्वभौमिकता से संबंध नहीं है। सब कुछ क्षणिक है, क्षणभंगुर है। सार्वभौमिकता हमारे मस्तिष्क की उपज है। जो "टाइम एवं स्पेस" में उपजे अनुभव को, जो क्षणिक है, उसे अनन्ता (infinity) तक ले जाता है। और "सार्वभौमिक सत्य" की परिकल्पना को रचता है। जिसे अंग्रेजी में यूनिवर्सल कहते हैं। इस प्रकार दिङ्नाग मानते हैं कि हमारे मन का सत्य परिकल्पना मात्र है, और यह सत्य को शब्दों के जरिये व्यक्त करने में असमर्थ है।
इस प्रकार, प्राचीन भारत की सभ्यता में, सत्य एवं संसार को लेकर तीन प्रकार के विचार हैं; पहला, दुनिया में सिर्फ़ दर्शक है, दृश्य उनकी परिकल्पना मात्र है (वेदांत एवं दिङ्नाग)। दूसरा, दुनिया सिर्फ़ दृश्य मात्र है (बुद्ध ऐसा मानते थे, कृष्णमूर्ति ने भी ऐसा माना है कि "मैं" का जन्म विचारों से होता है)। तिसरा, ना दृश्य है ना ही दर्शक (नागार्जुन ने पहली बार डायलेक्टिक्स को उपयोग करके शून्यवाद के सिद्धान्त का जन्म दिया था, क्योंकि दृश्य और दर्शक अकेले अस्तित्व में नहीं हो सकते, या तो दोनों हैं या तो दोनों नहीं, अगर दोनों है तो संसार है, और दोनों का आभाव है तो शून्य)!
आज के पोस्ट मॉडर्न युग में "कल्चरल इंडस्ट्री" (अडोर्नो) दृश्य और दर्शक दोनों पैदा कर रही है। कुछ लोग दृश्य मात्र हैं। टेलीविज़न पे सजा हर चेहरा, चलचित्र में रोमांच भरने वाला हर कलाकार, या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये सुबह-शाम कहानी गढ़ने वाला हर एक पत्रकार! और दर्शक के रूप में हम सब कंज्यूमर्स हैं। सुबह-शाम कुछ ना कुछ कंज्यूम कर रहे हैं। इस दृश्य और दर्शक के खेल में दृष्टि गायब है। दृष्टि का तात्पर्य उस नज़र से है जो इस खेल को एक मजाक भर समझते हुए सत्य में जीता है। दृष्टि दर्शक मात्र होने से अलग है। वो सत्य की सत्ता है। सत्य संसार से अलग है, शब्दों से अलग है, विचारों से अलग है, विवादों से अलग है, जो बिखर नहीं सकता, मानों सूर्य की रौशनी हो, जिसे बादल के आ जाने से उसके अस्तित्व को फ़र्क नहीं पड़ता है। आज के मीडिया जगत को बाहर से देखने वाला सत्य इसके "स्पेक्टेकल संसार" को मखौल भरी नज़र से देखता है। एक बार सत्य की अनुभूति हो जाने पर द्वैत-अद्वैत का द्वंद समाप्त हो जाता है।
Comments
Post a Comment