व्यक्तिगत सफलता को मापदण्ड बनाकर सफलता का सूत्र नहीं गढ़ा जा सकता. पूरे समाज को साथ लेकर चलने वाला मनुष्य ही शांति और प्रेम को उपलब्ध हो सकता है. मनुष्य के इतिहास की पहली भूल थी "व्यक्ति" की अवधारणा का जन्म, जिसे स्वतंत्रता के नाम पे सिंचित किया गया. स्वतंत्रता की परिभाषा को "फ्री विल" के इर्दगिर्द बाँध देने की भूल ने मानव को संसाधन लोलुपता की ओर जाने को प्रेरित किया. मानवीय गरिमा की परिभाषा पदार्थवादी चिंतन के समरूप एक स्वेच्छाचारी दर्शन का प्रतिबिंब बन कर उभरा, जिसके मूल में ही स्वार्थ है. फिर चाहे उदारवाद हो, नव-उदारवाद, या मार्क्सवाद, हर चिंतन के मूल में "शक्ति" और उसका पृथक्करण है. शक्ति भी ऐसी जो विलुप्त हो जानी है. बस कुछ समय की बात होती है. शक्ति-लोलुप मनुष्य अंधकार में भटकता है. जिस शक्ति की चाह में मानव आजीवन दौड़ता रहता है वो वास्तव में शक्ति है ही नहीं. वह तो मात्र कल्पनाओं में जन्मी मृगमरीचिका है, जिसके क़रीब जाते ही उसके खोखलेपन का एहसास होता है. बुद्ध के बारे में ऐसी अवधारणा है कि ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वो अपनी पत्नी से मिले तो पत्नी ने पूछा, "ऐसा क्या था जिसकी ख़ोज में आपको घर त्यागना पड़ा? और जो मिला वो क्या घर में मौजूद नहीं था?" इस बात का जवाब देते हुए बुद्ध ने कहा, "जिसकी खोज में निकला वो मेरे पास ही था. आज जब मैं लौटकर आया हूँ तो मुझे एहसास होता है कि सत्य को जीने के लिए किसी यात्रा की आवश्यकता नहीं है".
अक़्सर मैंने बदलाव को तत्पर मनुष्य में अधीरता को देखा है. जो पास में है उसका कोई एहसास नहीं, पर जो दूर में दिखता है उसके लिए दौड़े जा रहे हैं. और समीप जाने पर वो भी एक भ्रम साबित होता है. हमारा भूत और हमारा भविष्य भ्रम है. जो "अभी" को उपलब्ध है वही जीवित है. बदलाव प्रकृति की सार्वभौमिक विधि है, जिसकी यात्रा अपने नियत चाल और स्वाभाव से होती है. बदलाव में तेजी लाने का हर एक प्रयास संतुलन के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है. जैसे नदी की स्वाभाविक चाल को तेज होते ही विनाश होता है. मानव समाज ने २०वीं और २१वीं शताब्दी में विकास की रूप-रेखा खींचते-खींचते संतुलन को खो दिया. उसका दुष्प्रभाव आज हमें हर जगह दिखाई पड़ रहा है. समाज की परिकल्पना सिमटी जा रही है. परिवार बिखरता जा रहा है. अकेलापन और अवसाद की चपेट में लोग आ रहे हैं. और उसे दूर करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया जा रहा है. हमारे रिश्तों की बुनियाद भावनाओं में निहित है. आज के परिदृश्य में भावनाएं इमोजी में सिमट कर रह गयी है. और उल्ल्लास का हर एक क्षण तस्वीर में क़ैद है. मानों उल्ल्लास का सृजन ही हुआ है वर्चुअल रिअलिटी में! क्या यह कहना उचित नहीं होगा हमारी संवेदनाओं को: रेस्ट इन मेगापिक्सेल?
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