ख़्वाब भी आते थे, कभी-कभी डरा कर जाते थे,
सपनों के सहर में अक़्सर मेरा आना जाना हुआ करता था।
जिस दिन से सपनों ने हकीक़त की शक़्ल ली है,
सुबह की हवाएँ अब अज़नबी नहीं रही,
और शाम भी काफ़ी जानी-पहचानी सी लगती है।
आजकल के गुफ़्तगू में कुछ गिने-चुने शब्द मिल जाते हैं,
जिसे ज़ुबान पर बस एक बोझ लिए ढ़ोता हूँ।
कभी हँसने-रोने का जी तो चाहता है,
पर आज के मौसम में मखौल की क़द्र कहाँ है?
बड़े गंभीर लोग हैं,
ऐसा लगता है मानों पूरे जड़-चेतन को सर पे बिठा रखा है!
सपनों को देखने के लिए वक़्त तो लगता है,
आजकल वक़्त मुट्ठी भर रेत सा है।
शायद किसी मशीन के ख़्वाब में आज का सच क़ैद है,
जहाँ से सतरँगी ख़्वाब के दीदार में वक़्त तो लगेगा,
कहते हैं, इतिहास लौटकर फ़िर से आता है।
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