बिहार के चुनाव में हर दिन सुनने को मिल रहा है; इस जाति का इतना वोट बैंक है। हर जाति की अपनी एक पार्टी है। चुनाव में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मुद्दों का कोई स्थान नहीं दिख रहा है। विचारधारा की बात तो करना भी विचारों के आदर्श मूलक अस्तित्व पर सवाल उठाने जैसा हो गया है। लोकतंत्र के जन्म और विकास में जनता को संप्रभु माना गया था, और उससे विचारशीलता की अपेक्षा की जाती रही है। पर लोकतंत्र का जातीय स्वरूप जो बिहार के चुनाव में दिख रहा है, विचारशीलता के मानदंड पर सवाल खड़े करता है। जाति की संरचना में उलझे नागरिक लोकतंत्र के मूल्यों को किस हद तक समझ पाए हैं? राजनीतिक दलों के लिए काम काफी आसान हो गया है। वो हर क्षेत्र में जातीय समीकरण के हिसाब से टिकट वितरण कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मनुष्य भावनाओं की कठपुतली है। सोचने समझने की शिक्षा उन्हें कभी दी ही नहीं गई। अपने सामाजिक पहचान को कब तक ढ़ोया जाएगा? क्या राजनीति का एक मात्र मूल्य पहचान की राजनीति है? अमेरिका में भी पहचान की राजनीति हो रही है। मैंने लोगों को कहते सुना है कि आदर्श किताबी बातें हैं। धरातल का सत्य लचीला है। इसकी बुनियादी सतह नैतिक मूल्यों से नहीं "सेल्फ प्रिजर्वेशन" पे आधारित है, जैसा कि डार्विन का सिद्धान्त जीवों के विकास को रेखांकित करता है। जैक्स लकन की माने तो मनुष्य का मस्तिष्क एक भीड़ है जहाँ सेल्फ का मतलब जाति हो गया है। शायद ये चुनाव भी जातियों के संघर्ष की कहानी मात्र है। जिसके पोस्टर में कल्याणकारी लोकतंत्र की झलक है और पोस्टर के पीछे जातियाँ चुनाव लड़ रही है।
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
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