आज से कुछ शताब्दी पहले डेनमार्क में पंथ की धर्मान्धता से झुझता हुआ एक दार्शनिक का जन्म हुआ था। उसका नाम था सोरेन कीर्केगार्ड। कीर्केगार्ड को भीड़ हो जाने से भय महसूस होता था। भीड़ का मतलब अपनी आवाज़, अपनी पहचान को किसी मशीन के हवाले कर देना, जहाँ वो मात्र एक कल-पुर्जा सा रह जाए। नितज़्चे के दार्शनिक विचार ने पूरी दुनिया में आधुनिकता के प्रादुर्भाव को सामने रखा था जिसे "डेथ ऑफ गॉड" से नवाजा जाता रहा है। धर्मान्धता से झुलसते मनुष्य की आवाज़ ज़िन्दा करने का सार्थक प्रयास था नितज़्चे। हर ईश्वरीय व्याख्या में वर्तमान से दूर जाने की चेष्टा थी। ज़िन्दगी को भूल जाने का संकल्प था, और जिस दुनिया की कल्पना में ज़िन्दगी को भूल जाने की चेष्टा थी उसे ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने "प्योर आईडिया" से नवाजा था। और जिसे सेंट ऑगस्टाइन ने "सिटी ऑफ गॉड" की संज्ञा दी थी। उसी यूरोप में हेगल ने इतिहास की टेलिअलोजिकल व्याख्या की थी, जिसके विकाश के अन्तिम बिंदु के रूप में हम फुकुयामा के "इतिहास समाप्ति" की घोषणा को समझ सकते हैं। इन दर्शनों में मनुष्य को भीड़ हो जाने का डर था। और भीड़ की आवाज़ में, उसकी अंधी दौड़ में, जीवन अपने स्पंदन को खो देती है। सुबह से शाम तक का बोझ रात की नींद को बोझिल कर देती है। समय के इस तेज पहिये ने सिर्फ़ आदमी को ही अंधा क्यों बनाया? जबकि प्रकृति का हर क्षण अपनी क्षणिकता में परिपूर्ण मालूम पड़ती है। अपने वजूद की तलाश में भटकता हुआ, रोज़गार के आभाव में बेचैन, मनुष्य ने अपनी आवाज़ को पहचान के बेचैन समुंदर में पूर्णाहूति दे दी है। जहाँ स्वतंत्र आवाज़ को धर्म के अंधे निर्वचन ने क़ैद कर लिया है। और जहाँ जाति, धर्म, व लिंग का बोध हमें भीड़ का एक हिस्सा बना रही है, जिसमें हम इस क़दर खोते जा रहे हैं, जहाँ से सुबह की रौशनी और शाम की ख़ामोशी में छिपे जीवन रूपी कलरव का एहसास भी हमसे कोसो दूर है। कीर्केगार्ड का प्रयास था भीड़ से मुक्त होना मानो उन्मुक्त गगन में उड़ते पंख।
मनुष्य की उड़ान की सीमा उतनी ही है जितना उसके विचार सीमित हैं। सीमाओं से बाहर विचरण करने में कोई वक़्त नहीं लगता। बस संकीर्णता से उठने भर की देरी है। जिस दिन राजनीति का स्वरूप प्रेम होगा उस दिन राजनीति और नैतिकता के बीच की खाई मिट जाएगी, जिसका प्रयास महात्मा गाँधी आजीवन करते रहे थे। जहाँ प्रेम है वहाँ नीति, न्याय, शान्ति की खोज समाप्त हो जाती है। जहाँ विभाजन है, पक्ष-विपक्ष है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। जहाँ मनुष्य ख़ुद की अनुभूति प्रकृति के हर एक कण में महसूस ना करता हो वो भला प्रेम को कैसे जी सकेगा। लाओत्से के शब्दों में जो पक्ष-विपक्ष से विमुख है वो सहिष्णु है, मानो एक बच्चा जिसे जगत में नैतिकता-अनैतिकता का बोध नहीं है। हमारे शिक्षा का लक्ष्य रोजगार सम्यक रहा है। मनुष्य होने के लिए सम्पूर्णता का आलिंगन आवश्यक है, जिसके दामन में मैं-तुम का बोध मिट जाए। और प्रेम, करुणा, विश्वास, व सद्भाव हमारे रोम-रोम को सींचे। ऐसी शिक्षा ही जीवन की सम्पूर्णता को स्वीकार करती है। स्वराज्य गाँधी जी का सपना था, जिसे साकार करने के लिए हमें संकीर्णता से ऊपर उठकर प्रेम को स्वीकार करना होगा, जहाँ पहचानों के विभाजनकारी विचारों का कोई स्थान नहीं है। उस शान्ति के लिए मशीनी प्रतियोगिता को त्यागने की आवश्यकता है।
आप सभी को गाँधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं!
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