विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम्॥
हमारे पूर्वजों ने विद्या को कुछ इस तरह से समझा था: विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
आज मैं विनय को यदा कदा ही पाता हूँ, और पात्रता के बारे हर कोई कहेगा मैं पात्र हूँ इस पद को सुशोभित करने के लिए, इस काम को करने के लिए, लेकिन जब विषम परिस्थिति आती है वो मैदान छोड़कर भाग निकल जाते है! नौकरी तो सब करते हैं पर इंसानियत के सबब और सबक से कोषों दूर, अहं और अहंकार का दामन थामे हुए इंसानों ने प्रकृति को प्राकृतिक संसाधन बना दिया। हम खुद जानवर होते हुए भी "अन्यता" का भाव से ओतप्रोत हो कर, प्रकृति पे विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से, उन्हें संसाधन समझकर उत्पीड़न और दोहारोपन करने लगे। प्रकृति से भला हम अलग हो ही नहीं सकते थेे, बल्कि हम अपने अलावा सभी व्यक्तियों को वो जानवर समझना बेहतर समझा, जिससे अपने उद्देश्य के पूर्ति के उपरांत उनका कसाईघर में होना भी उपयोगी सा प्रतीत होता है। आज धन पात्रता से नहीं छल प्रपंच और भ्रामकता से आती है, वरना जो इस देश मे अनाज उगाता है उसे कर्जो में डूबकर आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। आज धन से सुख नहीं मिलता है, बल्कि और धन पाने की लालसा बढ़ती है। और धर्म की बात करना तो उस शब्द से भी अन्याय होगा! हमने अपने माता पिता के प्रति धर्म को भी "उपयोगितावाद" के दायरे में लाकर स्थापित कर दिया। मिशेल फूको कहते हैं " शक्ति की अवसंरचना को सिर्फ राज्य, पुलिस, और सेना के संदर्भ में मत देखिये, ये तो परिवार में भी है! एक माता का अपने संतान से प्रेम को किस शक्ति की परिसंरचना में देखूं! अपने मां और पिता के वृद्धता में किस "वाद" को समझूँ! क्या यह विद्या है? या कौशल है? या भ्रमों से निकला भ्रम जाल है! स्टीव जॉब्स अपनी मृत्यु शय्या पे अपने जीवन को याद करते हुए कहते हैं कि "ज़िन्दगी भर धन का पीछा करते हुए मैं धन का बीमार व्यक्ति हो गया"! विद्या वाकई में विनय लाती है पर आज विनय तो कही नहीं दिखता है, दिखती है गुलामी, धन की, शोहरत की, प्रतिष्ठा की, जिसका अस्तिस्त्व सिर्फ मानव मन में बसता है! वास्तव में हम प्रकृति से दूर चले गए हैं और प्रकृति में वापस लौटना सम्भव है; या तो हमारे आभाष से कि ये कहाँ आ गए हम, वरना विकाश से, या फिर सिधे शब्दों में कहें, सर्वनाश से!
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