हमारे मित्र ने एक किस्सा सुनाया, कि एक बार बचपन में उसे उसके एक शिक्षक ने कविता याद करने को कहा। कविता का बोल था, धीरे धीरे रे मना धीरे सबकुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय। हमारे मित्र ने सारी ताकत लगाई, पर ये कुछ छंद शब्दों की तुकबंदी उसके जुबां पे ना आयी। शिक्षक ने पूछा, इतनी छोटी सी कविता तुमसे याद नहीं होती? हमारे मित्र ने जवाब दिया, इसी में तो लिखा है, धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय, अब भला मैं जल्दी कैसे याद कर लूं? शिक्षक ने बजाय ये समझने के की कविता का अर्थ तो इसे मालूम है, उसे दंडित किया, बल्कि ये भी वक्तव्य दिया, एक तो कविता याद नहीं होती है, उपर से जुबां भी लड़ाता है! इस शिक्षा पद्धति ने हिंदुस्तान को कोई आइंस्टीन और इमैनुएल कांट जैसा विचारक नहीं दिया, नाहि शुश्रुत या चर्वाक को जन्म दिया। जन्म दिया मशीनों की एक बड़ी फौज जिसका कर्म और धर्म बाज़ार है, जहां इंसानियत को हर एक दिन खरीदा और बेचा जाता है। इस व्यवस्था को अंग्रेजो ने अपनी बुद्धि से जन्म दिया और सींचा ताकि मनुष्य के नाम पर क्लर्कों की एक बड़ी तादात इकट्ठी की जा सके। भारतीय नौकरशाही व्यवस्था के बारे में कहा जाता है यहां फाइलों के इस दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर जाने में महीनों लग जाते हैं, और ज़मीन पे कोई काम दिखने में वर्षों लग जाते हैं! अब भला क्यों ना लगे, जब दिमाग का इस्तेमाल कुछ रचने के बजाय कंठस्थ करने में लगाई जाए तो दिमाग की रचनात्मकता क्षमता विलुप्त हो जाती है। यह मैं कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहा, ये तो डार्विन का विकास क्रम का सिद्धांत कहता है। जब शिक्षा का सारा मकसद और शिक्षा पद्धति का स्वरूप नौकरी के इर्द गिर्द घूमती हो ऐसे में मानव मन में इस सृष्टि, जड़, और चेतन के प्रति प्रेम कैसे विकसित हो सकती है? यहाँ जीवन रोजगार तक सीमित है और उमंग व्यापार तक सीमित है इसके बाहर कोई निकले तो उसके लिए शशांक रिडेम्पशन मूवी से ली गयी चंद पंक्ति कही जा सकती है, उम्मीद एक अच्छी चीज़ है और अच्छी चीजें कभी नहीं मरती!
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
Comments
Post a Comment