ग़ालिब की मज़ार पे जहाँ पे बच्चे क्रिकेट का आनंद उठा रहे थे, वो पुरानी दिल्ली की पतली सी गलियां जो लुटियंस के शानों शौकत से दूर एक शायर के गुजरे हुए कल की दास्ताँ बता रही थी। वहीं से चंद कदम दूर एक शहंशाह का मकबरा इस बात का एहसास करा रहा था कि मृत्यु दुनिया में समानता का सबसे बड़ा सूचक है। एक फ़क़ीर की तन्हाई ने मुझे जो आनंद दिया वो एक शहंशाह के गुज़रे हुए कल में नहीं था। एक विदेशी सैलानी ने टिप्पणी की, "एक शहंशाह का गर मकबरा ऐसा है तो महल कैसा रहा होगा"! मुझे हुमायूँ के महल को लेकर कोई जानकारी नहीं है पर इतना समझ में आया, की इमारतें कुछ कहती है, ये पत्थर भी उन दबे हुए जीवाश्मों के शेषांश है, जो इस धरती के गुज़रे हुए अतीत को अपने ही अन्दाज़ में हमारे सम्मुख प्रस्तुत करते हैं! आज ये इमारतें-मकबरे सम्मोहन का केंद्र हैं। हाँ, ग़ालिब का मज़ार कुछ तन्हा सा है। शायद उसे शैलानियों की तलाश नहीं है। वो अपने ही होने को कुछ इस तरह से देख रहा है:
न था तो ख़ुदा था, कुछ ना होता तो ख़ुदा होता।
डुबाया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।।
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