1950 से 2017 तक का साहित्यिक सफ़र कोई बच्चों का खेल ही रहा होगा वरना बूढ़े मन से भला कोई क़िरदार कैसे गढ़ा जा सकता है। ये उमंगों की रवानी ही है, ये सादगी सी कहानी ही है, जो अपना बना लेती है, जो दिल में बसा लेती है। बेबाक़ क़लम जिनकी नायिका है, वो हैं हिंदी साहित्य की शिरमौर श्रीमती कृष्णा सोबती जी। आज उनसे मुलाकात का अवसर प्राप्त हुआ, उनकी ज़िंदादिली ने मुझे जावेद साहब का वो नज़्म याद दिला दिया:
दिलो में अपनी बेताबियाँ लेके चल रहे हो तो ज़िन्दा हो तुम, नज़र में ख्वाबों की बिजलिया लेके चल रहे हो तो ज़िन्दा हो तुम।
हवा के झोकों जैसे आज़ाद रहना सीखो, तुम एक दरिया के जैसे लहरों में बहना सीखो।
हर एक लम्हों से मिलो खोले अपनी बाहें, हर एक पल एक नया शमा देखे ये निगाहें।
जो अपनी आंखों में हैरानियाँ लेके चल रहे हो तो ज़िन्दा हो तुम।
ज़िन्दगी कि 94वी जन्मदिन मनाने वाली कृष्णा जी अपने ज़िंदगीनामा को याद करती हैं जिसके लिए उन्हें 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। 2017 में उन्हें ज्ञानपीठ से भी सम्मानित किया गया। हिंदी साहित्य को उत्तरप्रदेश और बिहार के भाषायी दायरों से मुक्तिबोध कराने वाली कृष्णा जी ने उर्दू, पंजाबी, और हिंदी के त्रिकोणात्मक सम्मिश्रण को अपने विशिष्ट अंदाज़ में प्रस्तुत किया। उनके इस उम्र के पड़ाव में भी गुजरात हिंदुस्तान से गुजरात पाकिस्तान तक जैसी रचना करने की शक्ति हमारे जैसे नौजवान को प्रेरणा देती है। रचना जीवन का आधार है। ईश्वरत्व कि सोच या परिकल्पना भी रचना के इर्दगिर्द घुमती है। उनकी आवाज़ धीमी हो चली है, शरीर को चलायमान रखना भी विकट संकट जैसा है, पर रुह तो आज भी ज़िन्दा है, बचपन सी इठलाती जुबां इतिहास के झूठे दावों को दरकिनार कर रही है। वो कहती हैं जब अंग्रेजों ने भारतीयों के लिए अलग सड़कों का निर्माण करवाया था सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी तब भी अंग्रेंजो के लिए बनी सड़क पे इस तरह से सीना ताने चल रहे थे मानो उनके बाप का सड़क हो। आजादी के इतने सालों के गुज़रने के बाद भी क्या हम कह सकते हैं कि ये सड़क गरीबों के लिए है, लाचारों के लिए है या फिर मोटर कारों के लिए है?
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