नेतृत्वकर्ता करुणामयी होता है. जिसके पास अहंकार आती है तो उसे दया भाव से देखता है, और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाता है. अहंकार एक स्वाभाविक लक्षण है. जब तक अस्तित्व है तब तक अहंकार है, इसे मिटाया नहीं जा सकता, पर बेहतर होता है कि वो हावी ना हो. हमारे समाज में, चाहे वो मनुष्य हो या जानवर हो, नेतृत्व करना हर किसी की बात नहीं है. नेतृत्वकर्ता अपने काम को इबादत की नज़र से देखता है. अनुपालन करने वाला पूरी ज़िंदगी इसी बात में गर्व करके बिता देता है कि कितना सफल व्यक्ति उसे जानता है. उसका अस्तित्व बस इस बात पे निर्भर करता है कि वो कैसे दूसरों की ज़िंदगी का हिस्सा बन सके. इस प्रकार वो अपनी ज़िंदगी के अध्याय को लिख नहीं पाता है. भटकता रहता है पर उसे मालूम नहीं कि वो क्या कर रहा है. प्लेटो, ग्रीक दार्शनिक, ने सही कहा था कि नेतृत्व करना हर किसी के बस की बात नहीं है. क्योंकि नेता वो है जिसकी अपनी स्वतंत्र आवाज हो. जो खोने को भी पाने जैसा सत्कार करता हो. जो सीखता रहता हो बिना किसी अहंकार के, अपने ईर्ष्या को अपना मित्र समझकर उससे बातें करता हो. मैं हैरान नहीं होता इस बात पे की लोग अनुपालन को उपलब्ध क्यों हैं, क्योंकि जीवन को जीने, गढ़ने, और सींचने में ज़्यादा का फ़र्क नहीं होता है. सवाल ये है कि हम हमारी अपनी ज़िन्दगी को जीते हैं या फ़िर दूसरों की ज़िंदगी के हिस्से बनकर गौरवान्वित महसूस करते हैं. जितना समय हम दूसरों के पीछे पीछे चलने में खर्च करते हैं, उन्हीं घड़ी का सदुपयोग कर हमारे संसार में कोई सच्चा नेता बनता है!
मैं अपने जीवन-अनुभव में कुछ साहित्यिक सफ़र से रूबरू हुआ उनमें हरमन हेसे की सिद्धार्थ मुझे बहुत प्रभावित करती है. एक व्यक्ति जो अपने सफ़र का दिशा-कर्ता है, उसे बुद्ध का तेज भी डिगा नहीं सका, पिता की नम आँखें उसे आगे बढ़ने से रोक ना सकी वो निकल पड़ा अपनी ख़ोज में. वो सबकुछ किया पर कहीं नहीं बंधा वो नदी की तरह प्रवाहित होता गया. अन्ततः वहीं पहुंचा जहाँ से उसकी यात्रा शुरू हुई थी. बस समय और किरदार बदल चुका था. पर वो जिया अपनी शर्तों पे. वो उसकी यात्रा थी. उसका अनुभव था. उसे सिद्धार्थ बखूबी जिया. दूसरी पुस्तक जिसे पाउलो कोएल्हो ने लिखा है, द अल्केमिस्ट, उसके प्रमुख किरदार का सफ़र भी कुछ इसी प्रकार से चलता है. उसके अपने सपने हैं. जो उसे चलने की शक्ति प्रदान करती है, पर वो साहस चलने का किसके पास है? किसमें ये साहस है कि धुंध के बाहर उस तपते सूर्य को देखे? अपने शर्तों पे जीने की क़ीमत होती है. दूसरों के शर्तों पे जीना हमें अपने जीवन से दूर कर देता है. हीगल ने सच ही कहा था की ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं यह तो ख़ुद को समझने की प्रक्रिया है. कमाल की बात ये है कि हम जानते बहुत कुछ हैं पर समझते क्या हैं? जिसे हम जानने लगते हैं उसे समझना बंद कर देते हैं!
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