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Showing posts from September, 2019

जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ

बैठता हूँ उस छत पे अक़्सर बरसाती रात में, बादलों पे भी निशा का रंग चढ़ जाता है, टर्र टर्र हर तऱफ बेंग बोल रहे होते हैं, शुकून लिये कोई झींगुर बंसी बजाता है। उसी छत पे जहाँ शाम को अक़्सर नहाये देखा है सिंदूरी बादल में, जहाँ चाँद को शरमाये देखा बादल के घूँघट में, जहाँ बचपन बीता है बसन्त सी झूमते बेलों सा, जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ। उसी छत पे जहाँ मैं एक आम और कुछ ताड़ के पेड़ को निहारता था, जो आज इंसानों के भुख का शिकार हो चले हैं। रात के अंधेरों में अक़्सर शैतान का किस्सा मेरी बूढ़ी दादी माँ सुनाती थी, वो सहमी हुई आंखें आज भी निहार आता हूँ, उसी छत पे जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ। जहाँ से सप्तऋषि को देखता था टिमटिमाते, तब मालूम ना था कि मैं कितनी शदियाँ देख आया हूँ। उसी छत पे जहाँ रात में भी बल्ले भांजा करता था, और विविध भारती ट्यून कर हवा महल घूम आता था। वो दीवाली की उमंगें वो होली के तरंगें, फ़िर से महसूस कर आता हूँ उसी छत पे जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ।

दरअसल मैं कोई एक आदमी नहीं हूँ

दरअसल मैं कोई एक आदमी नहीं हूँ, मेरे बदलाव का गवाह ज़र्रा ज़र्रा है, और मैं भी उन्ही ज़र्रे में से हूँ, जो टुकड़ों में अस्तित्व को धारण करता है, जिसे मैं का भ्रम भी है और जो ब्रह्मवाण है। ये जो मेरा मन है ना जाने कितने मैं समेटता है? कितने मन को टटोलता है? पहचान तो बस एक मैं धारण किये हुए है, ना जाने कितने पीछे रह जाता है? दोष मत देना कि मैं ऐसा आदमी हूँ, वैसा आदमी हूँ, दरअसल मैं कोई एक आदमी नहीं हूँ... हर बेनाम को नाम देना बस मेरी आदत सी हो गयी है, जो समझ में ना आये उसे पहचान देना ज़रूरत सी बन गयी है, मैं ख़ुद से अज़नबी हूँ, और ख़ुद में अज़नबी हूँ, दरअसल मैं कोई एक आदमी नहीं हूँ...

अभिलाषा

इतनी अभिलाषाएं इतनी आकांक्षाओं पे समर्पण कि बस नशे में निकल गया था पंख की खोज में, पर खोजने को तो भारत निकला था एक भद्र जन, पर मिल गया अमेरिका। हर खोज की यही कहानी है, हर सपने की यही निशानी है, जिसे हम खोजते रहते थे वो मृगमरीचिका निकली, पर जो मिला उसकी कभी अभिलाषा ना थी, पर वही जीवन था! सरल और परिलक्षित! हमने अक़्सर ख़ुद को भूत के झरोखे से देखा है, या भविष्य के कल्पनाओं में खोया है, वर्तमान को हमनें ज़िन्दा निगल लिया है।

How to Live: Anti-Utopian Perspective

I don't have any blueprint and I can not have. I may have certain immidiate purposes to achieve but it has nothing to do with the ultimate end. In fact, there cannot be any pre-decided end. Many times I tried to follow a routine to succeed, each time I failed miserably. Those failures are close to my heart. It is only failures which make me realise that life is not a manifesto to be proclaimed. Life is situational, temporal, here and now. It doesn't mean that I don't have any problem, or I am living with eternal bliss. In fact, I'm full of problems which make me engaged to solve it. Many problems are solved and many more come in between. But I don't think that these problems are itself the problem. Only this conflict deserves to be named as life. I cannot dream a heaven on earth. I cannot imagine a fairytale to come true. Life is what it is obvious to my senses. I witness it, feel it, what else is life. Here is bliss, ceaseless coiling, full of waves, ups and down

बातों पे कुछ बात हो जाये

कुछ जज़्बात से बात निकलेगी और बातों में बात फैलेगी, जबकि कहने को कुछ भी नहीं है, पर बातों के लिये कोई बात हो ये ज़रूरी तो नहीं। इतने ख़ाली बैठे हैं समय का तकिया सर से टेके, भला ये भी तो एक बात है, बात मुद्दे की ही हो ये ज़रूरी तो नहीं। मुद्दे नहीं मिल रहे हैं तो वे बातों की साईकल चला रहे हैं, कहते हैं, मुद्दे मिल ही जाए ये ज़रूरी तो नहीं। यहाँ हर कोई बोल रहा है, मालूम होता है, सुन तो कोई भी नहीं रहा है, पर बात सुनाने को ही किया जाये ये ज़रूरी तो नहीं। ठहर जाओ, देखो, हर समय-हर जगह बातें हो रही है, अब तुम भी बोलोगे ये ज़रूरी तो नहीं।

Habbit of Reading is hanging in "State of Oblivion"

There is no scope of celebrated academic pursuit. This is the easiest way to colour every single event as useful for knowledge. Knowledge has various dimensions; like ethics, logics, metaphysics, epistemology, and many more. These streams have been in the development much before Greek civilization came into being. And every single civilization which gave importance to the imagination over status quo deserves their name to be remembered for being a stepping stone for the knowledge and liberation from the ignorance; which is inherent in our collective psyche. Academic pursuit is all about breaking the hierarchy of authority and ensuring a level playing field for every single being. For communication plays a decisive role. The role of debate, discussion, and criticism to the accepted believes are key in the progress and development of knowledge. One of the keys of this progress is nothing but the habit of reading the available literatures.  I remember, in one of the conversation

दुश्मन जो गर जमाना हो जाये

मेरी दोस्ती के क़ाबिल जो हो गए हो तुम, इस काबिलियत से बेहतर होगा तुम दुश्मन के क़ाबिल हो जाओ। तेरी वाह सुनकर मैं आत्ममुग्धि की मौत नहीं मरना चाहता। मुझे उस रावण की जरूरत है जिससे राम के भी शौर्य में चार चाँद लग जाता है। जिसके जीवन में शत्रु ना हो वो जीया ही कहाँ है स्वच्छन्दता से। मानो इस जगत में कोई रोशनी के तेज से अन्धा हो गया हो। उजाले की चाह ना हुआ करती गर रात गहरी नींद में निपट लेता।

घुमड़ता इश्क़

तेरा इश्क़ कागज़ का फूल तेरा वस्ल हवा में बिखरी धुंध, ऐ दोस्त ज़रा क्षुधा से जलते कलेजे को निहार, शायद तुझे इश्क़ की भाषा पे गौरफ़रमाइश की गुजाइंश हो। तेरे परवाह में ये कैसी बेपरवाही है? जबकि तेरा प्रेम उमड़ता है, बहता है साइबर संसार में, मानो वर्च्यूल संकेत हो। जिसके हक़ में चंद शब्द तो मुनासिब होते हैं, पर उससे घुमड़ता धुँआ रौशनाई को बादल के पार ले उड़ता है। बता कि तूझे इश्क़ हुआ है या इश्क़ का कलमा पढ़ा है। इससे बेहतर तू अनपढ़ हो जा गर तुम्हें इश्क़ भी सिखाना पड़ जाए। सिखाया हुआ इश्क़ है तभी ज़ुबान पे अटक गया है, वरना मजाल कि तुम्हें इश्क़ हुआ हो और तेरी दृष्टि धुँधली हो जाए। अक़्सर सुना है इश्क़ अन्धा होता है, शायद ग़लत सुना है। जिसे तुम इश्क़ समझते रहे वो अन्धा ही था। और जब तुम्हें इश्क़ हो गया तत्क्षण दृष्टि मिल गयी। जिसे इश्क़ की तलब है उसे इश्क़ नहीं होता, जो बेतलब है वो तुलसी, सुर, और मीरा हो जाया करता है।

मैं भूल आया हूँ

गुम हो चली है वो हलचल सी भरी मखमली आवाज़, जिसे सुनने को अक़्सर मैं रात के साये का इंतज़ार करता था। दिन के कोलाहल में अक़्सर वो भूल जाती थी वो दस्तक़ देने को। एक दशक गुज़र आया है और भूल आया हूँ उसे उन्हीं काली स्याहो में। अब कहाँ मिलता है कोई बात करने को हर तरफ़ सिर्फ़ भीड़ ही भीड़ है। तन्हाई के दरवाजे पे चहलकदमी कर आता हूँ ये सोच कर कि शायद वो मिले जिसे भूल आया था कभी। जज़्बात सुनाने को ज़मीर के कंधे भी अब मुनासिब नहीं होते। कितनी बातें हो रही है पर उस आवाज़ को ढूढ़ने कहाँ जाऊं जहाँ कभी तुलसी, कबीर, और बुद्ध गए थे। किसी पेड़ के नीचे बैठ जाऊं या इत्मिनान की नदी पे तैर आऊं? आवाज़ आएगी भी भला कैसे सरहदे जो हमनें बनाई है। अपनी महानता के किस्से सुनने हर दिन जो गली की सैर में निकलता हूँ। वो सिर्फ़ एक आवाज़ नहीं थी मेरे ज़िन्दा होने का गवाह भी थी। शायद उसे बंधन पसन्द नहीं थी इसीलिए वो आज़ाद हो गयी है, और मैं भीड़ हो गया हूँ!

Discourse of Negation

Writing is an art of sincerity, a science of progress, a means to criticism, so as to ensure that no received sermon would be able to avoid the reflection of rationale gaze. Thoreau, one of profilic writers of all time writes in Walden: "I have yet to hear the first syllable of valuable or even earnest advice from my seniors. They have told me nothing, and probably cannot tell me anything to the purpose. Here is life, an experiment to a great extent untried by me; but it does not avail me that they have tried it. If I have any experience which I think valuable, I am sure to reflect that this my mentors said nothing about". The value of criticism is often ignored by many intellectual minds of modern age, somehow they have failed to appreciate that egotism is antithesis to wisdom. The value of criticism was recognized by one of leading intellectuals of 18th century, Immanuel Kant. He writes in his celebrated essay, titled What is Enlightenment?: "Enlightenment is m

समर्पण और बाज़ार

कहने को कई बात है पर जज़्बात के आगे झुक जाता हूँ, ज़िन्दगी के बेमुक़म्मल रास्ते को अपनाता जाता हूँ। पहर दो पहर घड़ी दो घड़ी बैठता हूँ उस दरख़्त के नीचे, जिसके दामन में जीवन सरीखी संगीत झूमती है! सच्ची बातें बेज़ुबां ही होती है, जब सहजता से डाली डाली को निहारता हूँ। सोचता हूँ गर धरा पे सिर्फ़ पेड़ ही होते, तो क्या उनका भी कोई बाज़ार होता? जो बिना शर्त देना जानता हो, उसे खरीदने को शेष क्या बचा? मालूम होता है सच और झूठ के दायरे तो हमने बनाये हैं, जीवन-मृत्यु के मापदंड भी हमने अपनाए हैं, उस पेड़ के टूटते पत्ते को देखता हूँ, उसका ख़ुद से बिछड़ना भी एक निर्माण की भाषा है। उसका निस्वार्थ समर्पण ही जीवन संगीत है!