बैठता हूँ उस छत पे अक़्सर बरसाती रात में, बादलों पे भी निशा का रंग चढ़ जाता है, टर्र टर्र हर तऱफ बेंग बोल रहे होते हैं, शुकून लिये कोई झींगुर बंसी बजाता है। उसी छत पे जहाँ शाम को अक़्सर नहाये देखा है सिंदूरी बादल में, जहाँ चाँद को शरमाये देखा बादल के घूँघट में, जहाँ बचपन बीता है बसन्त सी झूमते बेलों सा, जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ। उसी छत पे जहाँ मैं एक आम और कुछ ताड़ के पेड़ को निहारता था, जो आज इंसानों के भुख का शिकार हो चले हैं। रात के अंधेरों में अक़्सर शैतान का किस्सा मेरी बूढ़ी दादी माँ सुनाती थी, वो सहमी हुई आंखें आज भी निहार आता हूँ, उसी छत पे जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ। जहाँ से सप्तऋषि को देखता था टिमटिमाते, तब मालूम ना था कि मैं कितनी शदियाँ देख आया हूँ। उसी छत पे जहाँ रात में भी बल्ले भांजा करता था, और विविध भारती ट्यून कर हवा महल घूम आता था। वो दीवाली की उमंगें वो होली के तरंगें, फ़िर से महसूस कर आता हूँ उसी छत पे जहाँ कभी सोया करते थे कई सपने कई आशाएँ।
There is something in everything and everything in something.