गुम हो चली है वो हलचल सी भरी मखमली आवाज़,
जिसे सुनने को अक़्सर मैं रात के साये का इंतज़ार करता था।
दिन के कोलाहल में अक़्सर वो भूल जाती थी वो दस्तक़ देने को।
एक दशक गुज़र आया है और भूल आया हूँ उसे उन्हीं काली स्याहो में।
अब कहाँ मिलता है कोई बात करने को हर तरफ़ सिर्फ़ भीड़ ही भीड़ है।
तन्हाई के दरवाजे पे चहलकदमी कर आता हूँ ये सोच कर कि शायद वो मिले जिसे भूल आया था कभी।
जज़्बात सुनाने को ज़मीर के कंधे भी अब मुनासिब नहीं होते।
कितनी बातें हो रही है पर उस आवाज़ को ढूढ़ने कहाँ जाऊं जहाँ कभी तुलसी, कबीर, और बुद्ध गए थे।
किसी पेड़ के नीचे बैठ जाऊं या इत्मिनान की नदी पे तैर आऊं?
आवाज़ आएगी भी भला कैसे सरहदे जो हमनें बनाई है।
अपनी महानता के किस्से सुनने हर दिन जो गली की सैर में निकलता हूँ।
वो सिर्फ़ एक आवाज़ नहीं थी मेरे ज़िन्दा होने का गवाह भी थी।
शायद उसे बंधन पसन्द नहीं थी इसीलिए वो आज़ाद हो गयी है, और मैं भीड़ हो गया हूँ!
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