स्वार्थसिद्धि संग प्यार नहीं,
'मैं' का कोई विस्तार नहीं।
जो ख़ुद को सरोवर मान लिया,
पानी सा फ़िर उल्लास नहीं।
जो सुख-दुःख एक समान ही पाता है,
जो खेल खेलता जाता है।
निरंतर बहाव को पाता है,
ख़ुद ही रास्ता बन जाता है।
जीवन कोई मंझधार नहीं,
जिसे पाना है वो प्यार नहीं।
जो 'कल' में जीये जाता है,
वो पथिक अभी तैयार नहीं।
जो प्राण 'अभी' को जीवित हुआ,
वो सम्पूर्णता में निहित हुआ।
जो बदलाव से निर्भिक हुआ,
हर भाव क्षण में जीवित हुआ।
अब चाह नहीं सकाम कर्म,
आंनद है निष्काम कर्म।
जो दर्पण को सच है मान लिया,
शान्ति उस चित्त का हुआ दुर्गम।
'मैं' का कोई विस्तार नहीं।
जो ख़ुद को सरोवर मान लिया,
पानी सा फ़िर उल्लास नहीं।
जो सुख-दुःख एक समान ही पाता है,
जो खेल खेलता जाता है।
निरंतर बहाव को पाता है,
ख़ुद ही रास्ता बन जाता है।
जीवन कोई मंझधार नहीं,
जिसे पाना है वो प्यार नहीं।
जो 'कल' में जीये जाता है,
वो पथिक अभी तैयार नहीं।
जो प्राण 'अभी' को जीवित हुआ,
वो सम्पूर्णता में निहित हुआ।
जो बदलाव से निर्भिक हुआ,
हर भाव क्षण में जीवित हुआ।
अब चाह नहीं सकाम कर्म,
आंनद है निष्काम कर्म।
जो दर्पण को सच है मान लिया,
शान्ति उस चित्त का हुआ दुर्गम।
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