चिंतन की प्रक्रिया से एक 'अहम' का भाव का जन्म होता है। 'अहम' का यहाँ अर्थ सजीवता से है। बिना चिंतन के ख़ुद का अस्तित्व उभर नहीं पाता। चिंतन हमेशा समय में प्रकट व प्रगतिशील होता है। मन में समय का भाव चिंतन से ही प्रकट होता है। विचारों की श्रृंखला एक अबूझ 'मैं' बनाती है, जो समय की धारा में भूत-वर्तमान-भविष्य की कड़ी बनाता जाता है। कभी ख़ुद ही ख़ुद को बदलना चाहता है, तो कभी वो दुनिया को बदलना चाहता है। विचारों के साम्राज्य से झूठे 'मैं' का जन्म होता है, जो हर किसी जीव के दुःख का पहला और आखिरी कारण होता है। 'मैं' के रहते कभी प्रेम नहीं हो सकता। ख़ुद के रहते कभी ख़ुदा का अनुभव नहीं किया जा सकता। मैं एक विचार है, या फ़िर विचारों की एक लम्बी श्रृंखला। उन विचारों से ही ख़ुद की एक तस्वीर बनती है। और जब उस तस्वीर के मुताबिक चींजे नहीं घटती, तब व्यक्ति को दुःख होता है। उसके सारे रिश्ते विचारों के भ्रमजाल में बुने होते हैं। व्यक्ति अक़्सर अपने-पराये का चुनाव करता है। दल बनाता है। इन सारी रिश्तों की बुनियाद एक झूठा 'मैं' से शुरू होता है। जो विचारों के अतिरिक्त भला क्या है? इन संकुचित विचारों के परित्याग से ही शून्य का अनुभव होता है। जहाँ ना कोई चित्र है ना कोई चित्रण करने वाला। जहाँ ना कोई सीमा है ना कोई सीमा धारण करने वाला, जहाँ ना कोई चुनाव है ना कोई चुनने वाला। बस एक साक्षी मात्र है जो बिना किसी निर्णय के हर किसी घटना को उसके संपूर्णता में जी रहा है। फ़िर भला कैसा वाद और क्या विवाद? कैसा पक्ष और कौन सा विपक्ष? जब पास में कुछ है ही नहीं तो खो भी क्या सकता है? जब सुख की चाहत ही नहीं है तो दुख का कैसा भय? उस व्यक्ति के लिये अब कौन सा समय? जो सम्पूर्ण है उसे टुकड़ों में जीने की चाहत नहीं होती। टुकड़ा एक विचार है। और सम्पूर्णता का अनुभव विचारों के गिर जाने से सम्भव है। निर्विचारिता के बाद का अनुभव ही प्रेम है, जहाँ 'मैं-तुम' के भेद से दूर एक सम्पूर्ण सत्य से संवाद सम्भव है।
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
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