हिंसा हिंसा को जन्म देती है। हमारी कल्पनाएं, हमारी निष्ठा को न्याय की आवश्यकता ही नहीं है, अगर समाज का हर एक हिस्सा प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करे। न्याय व्यवस्था की जरूरत भी उसी समाज को होता है जो प्रकृति की छाया से अत्यधिक दूर हो। पर हमने प्रकृति को पदार्थवादी चिंतन में खो दिया। और जिस शक्तिवादी चरित्र से समाज को गढ़ा, उसमें हिंसा के अलावा और क्या मिल सकता है? हर कोई न्याय की भाषा में हिंसा करने को तत्पर है। न्याय की भाषा के समानांतर ही अन्याय की व्यवस्था फलित होती है अगर हम नीत्शे के विचार को गहराई से समझें। न्याय-अन्याय की भाषा उस समाज को पसंद आती है, जहाँ जीवन की तरलता के अलावा हर एक पदार्थ किसी दुकान पे उपलब्ध मिलता है। नैतिक विचार के ही जड़ में अनैतिक विचारों की एक शृंखला का जन्म होता है। सवाल यहाँ इस बात का नहीं है कि न्याय क्या है? या ये कभी मिलता भी है या नहीं? सवाल सिर्फ इस बात का है कि न्याय कौन करे? किसके हिस्से में इस शक्ति का अधिकार मिले? प्रकृति के पास न्याय की कोई भाषा नहीं है। वो तो सत्य है, पूर्ण है, अखण्डित है। मानव-विचार दुविधा में है। ख़ुद को तार्किक और न्यायप्रिय मानने वाले मनुष्य ने कभी जीवन के साथ न्याय नहीं किया, और अपने ही भाई-बन्धु के खून के प्यासे हो गये। मानव समाज का इतिहास ही रक्तपिपासु युद्धों की एक लम्बी शृंखला है। मनुष्य ने और भी जीवों पे अगाध निर्दयता दिखाई है। ऐसा क्यों हुआ? असीमित ऊर्जा वाले इस ब्रह्याण्ड में हमारी सारी ऊर्जा व्यर्थ में खर्च होती मालूम पड़ती है। मानव समाज न्यायप्रिय नहीं विवादप्रिय मालूम होता है। दुखी होना हमारा स्वाभाविक गुण नहीं है। दुखों का पहाड़ हमनें अपने ही कल्पनाओं से बनाया है। पर आज भी उस भार को न्याय की भाषा में ढ़क कर घूम रहे हैं। हिंसक समाज न्याय तो दूर जीवन से कोसो दूर है। ऐसे में सुख और चैन की परिकल्पना भी असम्भव है। हिंसा का हर एक टुकड़ा जीवन को बेचैन करता है, उसके बहाव में सड़ांध लगाता है, मानों कोई बरसों का पानी किसी कुएँ में कैद हो। कुंआ हमारे प्रतीकात्मक समाज का द्योतक है, जहाँ से जीवन रूपी धारा सम्भव नहीं है। लाओत्से की भाषा में जो पक्ष-विपक्ष से दूर है वही जीवन है, और जीवन को न्याय की नहीं जरूरत नहीं है। वो ख़ुद में ही परिपूर्ण है।
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
Very nice bhaiya👍👍👍
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