अर्थ को पुरातन दर्शन में राजनीति से अलग नहीं देखा गया था। आधुनिक मापदंड पे अर्थशास्त्र का जन्म एक कठोर विज्ञान के रूप में हुआ, जिसके दर्शन और समझ के लिए अंकों की समझ होना सर्वोपरि माना गया। चाणक्य का राजनीतिक दर्शन अर्थ के बहुआयामी प्रकृति को दर्शाया था, जिसमें राजा का कर्तव्य, राज्य का कल्याण, सुरक्षा, न्याय, व्यापार, कूटनीति, इत्यादि सम्मलित थे। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एक दूसरे को पूरक बनाते थे। बिना नीति के राजनीति को समझना और जीना असम्भव था। प्राचीन भारतीय दर्शन में विदुर, शुक्राचार्य, वृहस्पति, आदि का जिक्र होता है जो नीति के विद्वान समझे जाते थे। उनसे विचार-विमर्श करके ही राजा निर्णय लिया करता था। अर्थ को आधुनिकता ने वस्तुओं का विज्ञान बना दिया, जिसका संबंध व्यापार, कर, लाभ-हानि, उत्पादन, वितरण तक सीमित है। एरिस्टोटल के समय अच्छे जीवन की परिकल्पना वृहद थी जिसमें जीविकोपार्जन में सफलता और आर्थिक संवृद्धि एक पहलू मात्र था। एक अच्छा वक़ील, कलाकार, एवं व्यापारी का होना ही अच्छे जीवन का संकेत नहीं देता है। अच्छे जीवन की संकल्पना मनुष्य के आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक, एवं वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रख कर किया जा सकता है, जिसमें सारे पहलुओं पे ध्यान दिया जाता है। 19वी शताब्दी के अंत में कल्याणकारी अर्थशास्त्र का जन्म हुआ। केनेथ ऐरो, जॉन रॉल्स, मार्था नुसबॉम, अमर्त्य सेन जैसे विचारकों के प्रभाव के कारण संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास सूचकांक, विश्व खुशहाली सूचकांक को बढ़ावा दिया। दुनिया के तमाम आर्थिक महाशक्ति में कुछ ही राष्ट्र हैं जो जीवन के सर्वांगीण विकास पे ध्यान दे रहे हैं। भारत दोनों ही सूचकांक में अच्छी स्थिति में नहीं है। विकास के मायने क्या ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट एवं ग्रॉस नेशनल प्रोडक्ट तक सीमित किया जा सकता है? एक तरफ बिलियनर के बढ़ते तादात तो दूसरी तरफ भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी- अंकों के अर्थशास्त्र में उन्हीं पक्षो को उभारा जाता है जो अपने अनुकूल हो। इसप्रकार अर्थशास्त्र को आत्ममुग्धी का विज्ञान बनाया जा सकता है! जिद्दू कृष्णमूर्ति कहा करते थे कि मनुष्य के दुःख का निवारण विकासवादी विचारों में नहीं है। क्योंकि जहाँ वर्तमान और भविष्य का संघर्ष है वहाँ शान्ति और सुख की प्राप्ति असम्भव है, बल्कि ख़ुद के अस्तित्व को एक-दूसरे में ढूढ़ने और जीने में है। आपसी परस्पर सहयोग एक दूसरे के दुःखों का विनाश कर सकती है। मनुष्य का सच्चा विज्ञान उसे अच्छे जीवन के पथ पे लेकर जाएगा ना कि वस्तु लोलुपता, अहंकार का टकराव, क्षोभ, एवं मोह के रास्ते पर। लोग इतने गंभीर हो गए हैं कि मुस्कुराना भूल गए हैं। सफ़लता एवं असफ़लता का बोझ लेकर घूमते हैं। और इस भ्रम में जीते हैं मानो सदा के लिए उनके पास ये वैभव रहने वाला है। जब सिकंदर, नेपोलियन जैसे लोंगो की हस्ती क्षणिक हो सकती है, ऐसे में आम व्यक्ति के बारे में क्या कहा जाए?
पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।
Thank you so much sir.
ReplyDeleteThanks for reading and appreciating my perspective, dear Birendra!
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