जब कभी रात के साये में मिलता हूँ इस शीतल सी रौशनी से
एहसास होता है कितना अच्छा होता हम आदम भी एक दूसरों के साये का काम करते
चाँद ने भला कब ज़िद की थी सूरज से कि तुम मेरे हमजोली बनो
और सूरज ने कब कहा था चाँद से कि तुम लुकाछिपी खेलो
दिन और रात का खेल भी कभी बंद नहीं होता
मालूम होता है दोनों आंखमिचौली का खेल खेलते रहते हैं
अधूरे जो ठहरे एक-दूसरे के बिना
एक हम ही हैं इस ब्रहाण्ड के महफ़िल में
ग़मगीन अकेला व्यक्ति अपने ख़्वाबों में खोया हुआ
मानों पूरे अस्तित्व का बोझ हमारे कंधों पे है
भेद-विभेद के खेल में हम प्रेमी कम गुप्तचर ज्यादा मालूम होते हैं
जिसे इस बात की फ़िक्र है कि हमारे महफ़िल में
किसी दूसरे शख़्स की आवाज़ ना गूँजे
और इस खेल में हम अपने ही संगीत को खो बैठे हैं
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