ख़्वाब देखने का जज़्बा ही मर गया
फ़िर भला ये दौड़ किस काम की
भागते दौड़ते कुछ सामान इकट्ठा कर लिया
और उसे संभालने में ये वक़्त निकल गया
जिसे लोग ज़िन्दगी कहते हैं।
ठहर कर देख लेते दो बात कर लेते
तन्हाई में गुम कोई इन्सान
बेरुखी नहीं दिखाता
बेबसी के अंधकार में
मौन हो जाता है
चंद बातें इतनी महंगी भी नहीं
जो इंसान की आवाज़ लौटा सके
अपनी तकलीफ़ें सरे-आम करने से पहले
सोच लेना
संसार के बाज़ार में मख़ौल उड़ाने वाले ज़्यादा लोग मिलेंगे
बजाय मरहम लगाने के
बाट सको तो खुशियाँ बाटना
ग़म बड़े सस्ते में ख़रीद लिए जाते हैं
राग, ईर्ष्या, वेदना, और चेतना
इंसानी है और इंसानी ही रहेंगे
इनको सही और गलत में बाटने का बीड़ा ना उठाओ
जो खेल तेरे मन के भीतर चल रहा है
वो चलता रहेगा
ज़िन्दगी आख़िरकार किसे कहते हैं?
खेल हर कोई खेल रहा है
बच्चे से पूछो तो वो भी अपने खेल में गंभीर है
बड़ों से पूछो तो उनके गंभीरता का क्या कहना
सवाल इतना है कि खेल शुरू किसने किया?
और खेल के नियम गढ़ता कौन है?
खेलने वाला सवाल नहीं पूछता
खेल को खर्च किये जा रहा है।
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