विश्व के नागरिक होने के क्या मायने हैं? राष्ट्र निर्माण क्या विश्व निर्माण के सपनों की सम्पूर्णता है? और अगर दोनों दृष्टिकोण में कोई समानता है तो क्यों न विश्व निर्माण की तस्वीर राष्ट्र के सपनों के गलियारों से निकले। विश्व निर्माण की कल्पना एक परिवार के सम्पूर्ण विकास से अलग नहीं हो सकता. परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये जागरूक व्यक्तित्व की समझ विकसित करनी होगी, जो पूरे ब्रहाण्ड को एक सूत्र में समाहित देखता हो. जहाँ पे दुसरापन का एहसास जिंदा ना रहे. एक समग्र वृक्ष की तरह जिसके जड़ को यह शिकायत ना रहे कि ऊँचे पत्त्ते को हवा में झूमने का अवसर मिलता है. समग्रता त्याग मांगती है. बलिदानों से ही महान कार्य सम्पन्न होता है. हासिल ऐसा क्या किया जा सकता है जो परिपूर्ण हो? त्याग ऐसा क्या किया जा सकता है जो विशिष्ट हो? अधूरापन हमारी नियति है. इस खालीपन में ऐसी दौड़ क्यों लगाई जाय जिसमें लौट कर आना अवश्यम्भावी हो? विश्व निर्माण की कल्पना बिरले ही करते हैं. क्योंकि उसके लिए हर व्यक्ति के रचनात्मक क्षमता पे काम करना होगा. जो आज के समय में गिने-चुने कार्यों में खपता जा रहा है. नौकरी, शादी, परिवार, उपभोग की वस्तुओं की दौड़, जिसकी दौड़ अंतिम सांस तक चलेगी. क्या जीवन की कल्पना इतनी सी सिमटती तस्वीर में बयां हो जाएगी? या जीवन कुछ और है जहाँ तक हमारी कल्पनारूपी पंख ने उड़ान भरने की ज़हमत नहीं उठाई है? सवेरे सवेरे लोंगों का हुजूम सड़कों पे उतर आता है. किस चीज की तलाश है? कब तक ये तलाश चलेगी? सोचना नहीं हैं. जीना है. जीने की बाधाओं से लड़ना है हमारी महत्वाकांक्षा. विश्व और ब्रहाण्ड की कल्पना मर रही है. आज अंतराष्ट्रीय परिकल्पना सरकारों और उससे जुड़े नौकरशाहों की प्रैगमैटिक कुशलता के इर्दगिर्द घूमती है. पर्यावरण और इकोलॉजी मानव विकाश लक्ष्य दस्तावेजों में निखरती है. जमीनी हकीकत में हमें कोई परवाह नहीं है. पर्यावरण निजी सम्पति नहीं है! जो सबका है वो किसी का नहीं है. उसके बारे में सोचना अपने विकास का चक्का जाम करने जैसा है! गाँधी, कांट, कमला देवी जैसी शख्शियत अकैडमिक चर्चाओं तक सीमित है. विकाश की गाथा स्वकल्याण से शुरू होती है और स्वकल्याण पे लिपट सिमट जाती है. अब स्वकल्याण क्या विश्वकल्याण के बिना पूरा है या अधूरा है? ये हमें तय करना है. सत्यमेव जयते!
विश्व के नागरिक होने के क्या मायने हैं? राष्ट्र निर्माण क्या विश्व निर्माण के सपनों की सम्पूर्णता है? और अगर दोनों दृष्टिकोण में कोई समानता है तो क्यों न विश्व निर्माण की तस्वीर राष्ट्र के सपनों के गलियारों से निकले। विश्व निर्माण की कल्पना एक परिवार के सम्पूर्ण विकास से अलग नहीं हो सकता. परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये जागरूक व्यक्तित्व की समझ विकसित करनी होगी, जो पूरे ब्रहाण्ड को एक सूत्र में समाहित देखता हो. जहाँ पे दुसरापन का एहसास जिंदा ना रहे. एक समग्र वृक्ष की तरह जिसके जड़ को यह शिकायत ना रहे कि ऊँचे पत्त्ते को हवा में झूमने का अवसर मिलता है. समग्रता त्याग मांगती है. बलिदानों से ही महान कार्य सम्पन्न होता है. हासिल ऐसा क्या किया जा सकता है जो परिपूर्ण हो? त्याग ऐसा क्या किया जा सकता है जो विशिष्ट हो? अधूरापन हमारी नियति है. इस खालीपन में ऐसी दौड़ क्यों लगाई जाय जिसमें लौट कर आना अवश्यम्भावी हो? विश्व निर्माण की कल्पना बिरले ही करते हैं. क्योंकि उसके लिए हर व्यक्ति के रचनात्मक क्षमता पे काम करना होगा. जो आज के समय में गिने-चुने कार्यों में खपता जा रहा है. नौकरी, शादी, परिवार, उपभोग की वस्तुओं की दौड़, जिसकी दौड़ अंतिम सांस तक चलेगी. क्या जीवन की कल्पना इतनी सी सिमटती तस्वीर में बयां हो जाएगी? या जीवन कुछ और है जहाँ तक हमारी कल्पनारूपी पंख ने उड़ान भरने की ज़हमत नहीं उठाई है? सवेरे सवेरे लोंगों का हुजूम सड़कों पे उतर आता है. किस चीज की तलाश है? कब तक ये तलाश चलेगी? सोचना नहीं हैं. जीना है. जीने की बाधाओं से लड़ना है हमारी महत्वाकांक्षा. विश्व और ब्रहाण्ड की कल्पना मर रही है. आज अंतराष्ट्रीय परिकल्पना सरकारों और उससे जुड़े नौकरशाहों की प्रैगमैटिक कुशलता के इर्दगिर्द घूमती है. पर्यावरण और इकोलॉजी मानव विकाश लक्ष्य दस्तावेजों में निखरती है. जमीनी हकीकत में हमें कोई परवाह नहीं है. पर्यावरण निजी सम्पति नहीं है! जो सबका है वो किसी का नहीं है. उसके बारे में सोचना अपने विकास का चक्का जाम करने जैसा है! गाँधी, कांट, कमला देवी जैसी शख्शियत अकैडमिक चर्चाओं तक सीमित है. विकाश की गाथा स्वकल्याण से शुरू होती है और स्वकल्याण पे लिपट सिमट जाती है. अब स्वकल्याण क्या विश्वकल्याण के बिना पूरा है या अधूरा है? ये हमें तय करना है. सत्यमेव जयते!
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