वो सोई हुई घड़ियाँ थी जब हम बरसों सा मिले थे, अब तो हर एक पहर उसी की परछाई मालूम पड़ती है। मुझे मालूम था कि ये घड़ियाँ बेशकीमती है, तो जिया उन्हें इस क़दर हमनें कि आज के गुज़रते लम्हें मायूस नहीं होते। तुम्हारी नज़र के दीदार को कितने बहाने बनाता था, और तुम थी कुछ क़दर कि जिसकी नज़रें और जुबां बटे नज़र आते थे, कितनी बार लकीरें खिंची और कितने बार मिटाया हमनें, आख़िरी बार की वो लक़ीर सरहद कब बन गयी पता ना चला, आज मैं जन्मों दूर उस उगते-उजड़ते बागवां को देखता हूँ तो एहसास होता है, कि तुम तो मेरे साथ ही आ गयी थी जन्मों पहले, वो दूर टिमटिमाती सी यादें तेरी एक परछाई है।
There is something in everything and everything in something.