मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,
मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में॥
~ कबीर
मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में॥
~ कबीर
हर व्यक्ति के जीवन में मित्रता और दुश्मन अवश्यम्भावी है। पर सवाल ये बनता है कि क्या दोस्त और दुश्मन की खोज आंतरिक व मानसिक जगत हुई है? शायद ना के बराबर हुई है। कुछ पश्चिमी मनोवैज्ञानिक ने मनोविकार के अध्ययन में मानव चेतन व अवचेतन को समझने की चेष्टा की है। उसमें फ्रायड, युंग, अल्फ़्रेड एडलर का नाम याद किया जाता है। फ्रॉयड के बहुत सारे विचारों को चिकित्सा जगत सुडोसाइंस कह करके संबोधित करता है। पर इसमें कोई शक नहीं है कि फ्रॉयड ने पश्चिमी जगत में मनोविज्ञान की आधारशिला रखी जिसे युंग, एडलर, व विक्टर फ्रांकैल जैसे विचारकों ने आगे बढ़ाया। उनका मनोविज्ञान मन की चिकित्सा एवं नैदानिक पद्धति से जुड़ा रहा मानो कोई अपने पापों का 'इकबालिया बयान' देता है। इस विषय पे क्रिस्चियानीटी का प्रभाव साफ तौर से देखा जा सकता है। 'इकबालिया बयान' की पद्धति पश्चिमी जगत के साहित्यिक सफ़र में भी रूबरू होता है, जब संत अगस्ताइन से लेकर रूसो तक कॉन्फेशन लिखते नज़र आते हैं। गाँधी भी 'मेरे सत्य के एक प्रयोग' में उस पद्धति से प्रभावित नज़र आतें हैं।
पश्चिमी मनोविज्ञान की आधारशीला रखते हुए फ्रॉयड ने मनो-विश्लेषण को विज्ञान के मूल्यों एवं पद्धति से बाहर ले जाने वाली हर चेष्टा का विरोध किया था। इस बात पे उनका विरोध युंग से हुआ था। बाद में मतभेद मनभेद में बदल गया।
वैज्ञानिक मूल्य पदार्थ के तल पे काम करते हैं। जिसे अंग्रेजी में 'सीम्टोमेटिक' कहा जाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक व काव्यगत चिंतन को विज्ञान नकारता रहा है। मेटाफीसिक्स के प्रति वैज्ञानिकों का पूर्वाग्रह रहा है। इसप्रकार पश्चिम जगत में मन के स्तर पर चेतन, अचेतन, व अवचेतन एवं ईड, ईगो, सुपरईगो की बात होती रही है। या फ़िर अवचेतन, सामूहिक अवचेतन की बात होती रही है। पर मन के स्तर पे हर व्यक्ति कई मित्र और शत्रु बनाता है। मन तय करता है हमारा दोस्त और दुश्मन कौन है। इस मामले में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अवलोकन के आभाव में अंधकार में मालूम पड़ता है। विश्लेषण मन के चुनाव को औचित्य प्रदान करता है। अक़्सर लोग "एस्थेटिक" कारणों से निर्णय करते हैं। वैज्ञानिक विश्लेषण का उसमें तनिक भी प्रभाव नहीं दिखता है। प्रयोग के तौर पर जब आप किसी के मित्र होते हैं तो उसकी बातों को नज़रअंदाज करना जानते हैं। पर जैसे ही मतभेद हुआ कि आप इतिहास खोद कर उसके खिलाफ सबूत इकट्ठा करने लग जाते हैं। उसकी हर बात अब आपको दुखी करता है। अब आप उसकी बातों को यूँही नज़रअंदाज नहीं कर पाते। अब तो हर बात गलत लगती है। ऐसा क्यों होता है?
हेगल ने कहा था, "जब आप लोगों को जानने लगते हैं तो समझना बंद कर देते हैं"! चीनी साहित्य जो बुद्ध के मूल दर्शन से ओत प्रोत था, इस दिशा में कुछ और ही बात करता है। पौराणिक चीनी साहित्य मानता है कि दुश्मनी में व्यक्ति दुश्मन जैसा होने लगता है। सोते जागते आप दुश्मन के हर बातों पे नज़र रखते हैं। उसे अपने मन में पालते हैं। स्वाभाविक तौर पर आप उसके जैसा बनने लगते हैं। फ्रेडरिक नीत्शे सच ही कहते हैं, "He who fights with monsters should be careful lest he thereby become a monster. And if thou gaze long into an abyss, the abyss will also gaze into thee".
लाओत्से ऐसे दुश्मन को विचारों में ही तिलांजलि देता है, जब वो कहता है, "Give evil nothing to oppose. And it will disappear by itself".
मनुष्य अपनी ज़िंदगी मन के स्तर पे भी जीता है। यह भी, हालाँकि, सच है कि पदार्थों का होना हमारे लिए उतना ही जरूरी है जितना किसी अन्य जीव के लिए। पर जीवन शांति और खुशी का अनुभव बाहरी पदार्थों से नहीं, मन की स्थिरता से प्राप्त होता है। जैसे पानी स्थिर होते ही पारदर्शी हो जाता है, मन शांत होते ही खुशी को उपलब्ध होता है। अक़्सर लोग बाहरी शत्रु की खोज में निकलते हैं, जिससे वो अपने मन की जिम्मेवारी से बच सकें, जो उन्हें दुःखी व कमजोर बनाता है। इमैनुएल कांट की माने तो वो हर व्यक्ति को रेशनल मानते हुए वे उम्मीद करते हैं कि अगर नैतिक मूल्य किसी एक व्यक्ति को उपलब्ध हुआ है तो सभी को हो सकता है। जो मूल्यों से भागते हैं वो बाहरी कारण को ढूंढ़ते हैं। पर हमारे कृत्य अक़्सर कारण जनित नहीं होते हैं, बल्कि टेलियोलॉजिकल होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य संगनात्मक विचारों से सही गलत की पहचान नहीं करता है। कैलकुलेट नहीं करता है। और बाद में दोषारोपन उसका स्वाभाव बन जाता है। वे ख़ुद को सुरक्षित महसूस करते है जब वो दूसरों पे ख़ुद की जिम्मेदारी टाल देता है। अपराधशास्त्र व दंडशास्त्र की वैचारिक रूपरेखा में आप पाएंगे कि विचारक अपराध के कारणों को खोजने निकलते हैं। दंड के मापदंडों को बाहरी कारणों के तराजू पे तौलते हैं। पर सच तो ये है कि मनुष्य का दोस्त व दुश्मन आंतरिक ही है। मनुष्य अपने मन का क़ैदी है!
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