Skip to main content

सजा देने वाले भला हम कौन होते हैं: जफ़र साहब की कहानी


जफ़र साहब प्रमोशन पाकर एडीजे बने थे. जज बनना वाक़ई में बड़ी बात मानी जाती थी उनदिनों और आज भी इसका क्रेज़ कोई कम नहीं हुआ है. एक व्यक्ति के हाथ में कितना कुछ होता है करने को. जफ़र साहब भी फ़ाइलों के ढ़ेर से फुरसत पाकर कभी कभार आम आदमी की ज़िन्दगी जी लिया करते थे. माफ किजियेगा मेरा मतलब वो कोई राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुए थे. जज साहब कुर्सी पे बैठते ही राजीनीति से दूर हो जाते हैं. आख़िरकार न्याय करना कोई राजनीति का काम थोड़े ही है. इस काम के लिये पहले ही कई लोग पोस्टर लगवा चुके थे. होली और ईद की बधाई वाले बड़े बड़े पोस्टर! जिसका पोस्टर बड़ा होता था, राजनीति में कद उसी कदर बड़ा होता जाता था. उस राजनीति की बात यहाँ नहीं हो रही है जिसके बारे में एरिस्टोटल साहब 'पॉलिटिक्स' में लिखते हैं. ख़ैर जफ़र साहब को इससे क्या काम! वो तो ईमान के पक्के व्यक्ति थे. दरअसल उनकी पोस्टिंग एक ऐसे ज़िले में हुई थी जहाँ पे बिजली मुफ़्त में, ख़ासकर जजेज कॉलोनी में, मुहैय्या करवाई जाती थी. जफ़र साहब ने रिक्वेस्ट किया,
"कृपया कर बिजली बिल तो मुहैय्या करवाइये जी. मैं हराम के पैसे नहीं रखता".
इस बात को लेकर जजेज कॉलोनी में चर्चा उठी कि अग़र जफ़र साहब के बिजली बिल की फ़रमाइश पूरी हुई तो ये भुगतान तो सबको करना होगा. एक्सक्यूटिव इंजीनियर साहब मनाने आये,
"साहब मान जाइये, बिजली बिल नहीं दे पायेंगे"!
जफ़र साहब ने समझाया, "देखिये मैं फ़िर ऐसी बिजली का लुत्फ़ नहीं उठा पाऊंगा. आप मेरा बिजली कनेक्शन काट दीजिये"!
इंजीनियर साहब घबराये, "ऐसा ना कहे सर गुस्ताख़ी माफ हो"!
जफ़र साहब ने जवाब दिया, "मैं आग्रह करता हूँ आप मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिये. मैं ख़ुदा को क्या जवाब दूँगा"?
इंजीनियर साहब को इस बात का कतई इल्म नहीं था कि इनका कनेक्शन काटना पड़ेगा. बल्कि वो तो आनेवाली आफ़त को लेकर चिंतित थे.
जज साहब की बात सुन कर इंजीनियर साहब ने राहत की साँस ली और चलते बने.
जफ़र साहब के घर की बिजली का कनेक्शन काट दिया गया था. जफ़र साहब के घर के दरवाज़ों पे अब लालटेन ने शोभा बढ़ाना शुरू कर दिया था!

बैंक के खातों में सूद और ब्याज का हिसाब किताब तो बहुत पुराना है. जिस तरह से दुनिया की आबादी बढ़ रही थी उस के हिसाब से बैंकों का ब्याज नहीं बढ़ पा रहा था. जफ़र साहब को तकलीफ़ इस बात की नहीं थी. उनकी चिंता कुछ और ही थी. भला सूद का पैसा खाना हराम था. एक जघन्य पाप!जफ़र साहब लाल बत्ती के शानो शौकत से दूर बैंक की यात्रा पैदल ही कर डाले.
बैंक के बाहर खड़ा दरवान पूछ बैठा, "कहाँ जा रहे हैं जी"?
जफ़र साहब ने नम्रता पूर्वक जवाब दिया, "बैंक में खाता बंद करवाने आया हूँ".
यह सुनकर दरवान को विश्वास नहीं हुआ उनकी बातों पर. उन दिनों दरअसल जन धन एकाउंट का प्रचलन नहीं था. गरीबी हटाओ के नारो के शोर-गुल में यह बात दब गई थी बैंको के दरवाजे तो मोटर कार वालों के लिये ही खुले हुए हैं!
जफ़र साहब वो भी पावँ गाड़ी से बैंक पहुँच चुके थे. आश्चर्य की बात तो थी ही. हालाँकि मैनेजर साहब की पारखी निग़ाह यह जानने में देर ना लगाई कि आगंतुक शख्स कोई और नहीं जज साहब हैं. आदर से मैनेजर साहब ने पेप्सी और कोका कोला लाने का आदेश दरवान जी को दे दिया. यह सुविधा अक्सर मोटर कार वालों के लिए उपलब्ध था. हालाँकि जफ़र साहब तो इसके अपवाद निकले. मैनेजर साहब के ख़ातिरदारी को धत्ता बताते हुए जफ़र साहब बोले, "मैं कोई तोहफ़ा नहीं लेता मैनेजर साहब. नाही हराम का कोई दाना पानी लेता हूँ. इंतेक़ाल के बाद अल्ला को क्या मुँह दिखाऊंगा, माफ कीजिये बस एक गुज़ारिश करने आया हूँ, आप मेरे बैंक का खाता को बंद कर दीजिये".
मैनेजर साहब के तो होश उड़ गए. वैसे पता नहीं होश के कितने पंख होते हैं जो अक़्सर उड़ा करते हैं.
मैनेजर साहब ने तपाक से जवाब दिया, " जज साहब हमसे कोई ग़लती हो गयी है क्या? आपहिका बैंक है हुजूर. पराया ना समझे हमें!" वैसे भी पैसा से बढ़कर दुनिया में अपना बनाने का कोई साधन नहीं है.

जफ़र साहब दुनिया के चलन से दूर उसूलों के मैली चादर को ओढ़े हुए मध्यम स्वर में बोले, "आप समझिए मेरी बात को. आप खाता चलने दीजिये, पर सूद के क़हर से बचा लीजिये. वो कोई ऐसी वैसी मर्ज़ नहीं है साहब, आफ़त है, आफ़त!"
"माफ़ किजियेगा", मैनेजर साहब बोले, "इस आफ़त का ईलाज तो बैंक का एमडी भी नहीं कर सकता है, और हम ठहरे ग़रीब मैनेजर! पर आपका वेतनमान तो यहीं से ना बनकर मिलेगा सर. कैसे मैनेज करेंगे आप"?

जफ़र साहब मुस्कुरा दिए थे. उनके ख़ामोशी और  लाचारी को नया ज़माना समझ नहीं पाया था. वो फाँसी की सजा दे सकते थे. इतना पॉवरफुल आदमी थे, पर उसूलों के दामन में इतने दाग ज़माने ने लगाए थे की कोई निरमा साबुन भी उसे धो नहीं सकता था.

कचहरी में इजलास पे अक़्सर बैठकर ख़ुदा को याद करते थेे. उनके हाथों से कभी कोई सजावान नहीं हुआ था. 100 परसेंट का रिकॉर्ड था उनका. क्रिकेट में डॉन ब्रैडमैन के औसत से भी बेहतर!
वो कहते थे "सज़ा देने वाले भला हम कौन होते हैं? सज़ा तो अल्ला देगा"!
इस बात पे अक़्सर बड़े बड़े अपराधी इस फ़िराक़ में रहते थे कि किसी तरह से हमारा मुक़दमा जफ़र साहब के कोर्ट में लग जाये. जफ़र साहब की सादगी और सच्चाई दुनिया के लिए एक कौतूहल का विषय था. वो आख़िरकार इन्सान के कमज़ोरी को जानते थे, और ख़ुद के न्याय से ज्यादा ख़ुदा के न्याय पे भरोसा था उनको. ये अलग बात थी कि दुनिया के चलन में न्याय शब्द का कुछ और माने था!

इस व्यंग्य का उद्देश्य किसी के धार्मिक भावना को आहत पहुचाना नहीं है. नये और पुराने ज़माने के अंतर्द्वन्द्व को दिखाने के लिये जफ़र साहब का कैरेक्टर लिया गया है. धन्यवाद!
आपका मृत्युंजय🙏

Comments

  1. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद प्रशांत!!

      Delete
    2. By mistake the comment has been deleted. Thanks Prashant for appreciating this short story.

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

Imagination

Student: I want to excel in my life. Over the years, my graph of success is achieving a new height. I am doing hard work to become one of the smartest and richest persons on the Earth. Teacher: Wonderful! Who is  achiever and what is achieved? Student: I am the achiever. My name and fame are shining day by day.  Teacher: Who is this ‘I’? What is the material by which it is produced? Student: I is the ego which is the agent achieving successes and facing failures. Teacher: Whether ego is real or imaginary? Student: It is made of name, form, and function. Teacher: Whether name, form, and function are eternal?  Student: No, they are changing. Teacher: Anything changes does it exist? Whether these are real or merely fictitious images appearing and disappearing before the sightscreen of mind? Student: They are the images constructing my identity as a person. Teacher: Well said! What is the stuff by which these images are made of? Who is maker and what is made? Student: They ar...

पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का

पढ़ता हूँ हर एक दिन एक ही पन्ना, हर दिन हज़ार ये मालूम पड़ते हैं। जबसे होश संभाला है एक ही पन्ना सवांरते आया हूँ, लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं। इसपे लिखे हर एक लब्ज़ जो मेरे मालूम पड़ते हैं, ना जाने कितने जुबां पे चढ़े होंगे। आज हम भी कुछ पल के लिए ही सही इसके सारथी हैं, जाने से पहले कुछ रंग मेरा भी इसपे चढ़ जाए, बस इसीलिए एक ही पन्ना बार बार पलटता रहता हूँ। हर कोई अनजाने किताब की तलाश में बाहर निकलता है, जिसका हर एक पन्ना वो ख़ुद है। जब ख़ुद के रंग को समझ ही ना पाया, तो भला इंद्रधनुषी किताब के क्या मायने हैं? अस्तित्व में ना जाने कितने पन्ने बिखरे पड़े हैं, बस एक से ही अवगत हो जाऊँ, उसके हर एक शब्द को चुनता जाऊँ, कुछ पल के लिये सही, पिरोता जाऊँ एक माला ज़िन्दगी का।

Time and Love

Time passes by Like moving in a train of thoughts Its sequence is always forward Vibrating like a cosmic dance of Shiva Time is creating and engulfing The little waves of the ocean Going where? Nobody knows Like a dream does not have a destination It is as true as any absurd play With friends of pleasure It moves like speed of light With friends of need It is felt like a moving river Allowing a little moments of thoughts Before everything becomes a history With friends of virtue Time becomes a sublime touch Soothing and healing the pain Becoming a spectator To watch the cries and follies Beauty and ugliness The rainbow of joy And an album of suffering Time touches Yet it remains aloof Like Purush is witnessing The colours of prakriti Yet remains unblemished And untouched The union of two is always mystical Their touch is a source Of creation and transformation Time is witnessing everything In its sequential movements Who is witnessing time? What is independent of the originatio...