हर दिन सवेरे-सवेरे ऐसा लगता है कि मैं आसमान के उस पार वाली सड़क पे सैर कर आऊँ,
बहुत सुना है उसके बारे में,
आजकल संदेह के स्याह बादल ने विश्वास को घेर रखा है,
विश्वास कुछ ऐसा डगमगा रखा है कि क़रीब से कोई गुज़रे तो यक़ीन होने लगता है कि कोई बीमारी आ रही है,
बीमार तो हम पहले से ही थे,
आज एहसास हो रहा है।
हर बार संकट की घड़ी एक आईना लेकर आती है,
जिसे देखना हो ख़ुद का हाल,
उसे तो आईने की भी ज़रूरत नहीं।
ख़ुद को भुला देने की हमारी ज़िद में,
भला ईश्वर भी कैसे बताए कि हम सब कहाँ भागे जा रहे हैं?
जीना तो धरा पे ही है पर आसमान में सीढ़ी लगाए जा रहे हैं!
सब कुछ जान लेने की तलब में जो पीछे रह गया
वो कौन है?
हर उपलब्धि को तमाशबीनों सा सजा देने के बाद जो शेष रह गया वो कौन है?
शायद ज़िन्दगी है!
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