जीवन भी भला असहनीय हो सकता है, जबकि हमारे आदर्श और हमारा सत्य इसके गहरे सत्य के इर्दगिर्द ही होनी चाहिए थी। फ़िर कौन से सत्य के साथ हम जीते हैं? कैसी कहानी गढ़ते हैं? कैसे विचारों को अपना लिया हमनें? मानव जीवन का तानाबाना पदार्थ के इर्द-गिर्द घुमता है। मन का पदार्थवादी चिंतन में कोई स्थान नहीं है। स्प्रिट की बात तो मानो कोई अंधविश्वास से कम नहीं आँका जाता है। ऐसे अर्ध-सत्य के साथ जीवन को महसूस नहीं किया जा सकता। हमारे दुःख का मूलभाव हमारे चिंतन एवं व्यवहार से जुड़ा हुआ है। हमारे मन से ही संसार है, अगर मन परेशान है तो संसार परेशानी में मालूम पड़ता है। लेकिन मन के आंतरिक सतह को महसूस कौन कर रहा है? उस खालीपन के भाव में हमारा ज्ञान छिपा है जो सत्य से इतना दूर है, और दूर जाना चाहता है। ज्ञान का अपना ही घर है जहाँ से सत्य को बाहर निकाल दिया गया सदा के लिए। ज्ञान ने अपने घर में सूचनाओं को जगह दी है, जो चेतना शून्य है, संवेदना शून्य है, यहाँ तक कि वेदना शून्य है। ऐसे में भाव महसूस योग्य नहीं रह जाता, वर्णन को व्याकुल होता है। कारक, कारण, और उससे उपजे प्रतिबिंब का सच हमारे ज्ञानी चरित्र को दर्शाता है। हमारे संसारी सुख और दुख के मूल में कल्पना है। कल्पना से ही पीड़ा का भाव पैदा होता है। कल्पना को गर जीवन के स्पंदन में स्थान दिया जाए तो जीवन के समन्वय रूपी असाधारण ऊर्जा का आभास होता है। मिशेल फूको ने हिस्ट्री ऑफ सेक्सुअलिटी में शरीर चिंतन के शक्तिवादी और सुखवादी पक्ष को बखूबी उभारा है। शारीरिक चिंतन से ऊपर उठकर ही व्यक्ति प्रकृति के सौंदर्य को उपलब्ध हो सकता है। मनोविज्ञान और पदार्थवादी विज्ञान ने अपने अपने डिस्कोर्स गढ़ लिये हैं, और जो शेष रह गया है वो जीवन है, जिसे हमनें अपनी ही राजनीति और अर्थव्यवस्था में जीवन रहने नहीं दिया है। जीवन आज के विज्ञान का एक कौतूहल रूपी विषय-वस्तु है, जिसे टुकड़ों में वर्णन किया जाता है, उभारा जाता है। और उस जीवन के टुकड़े सत्य को बेचने खरीदने योग्य बनाया जाता है। वैल्यू को प्राइस में तब्दील कर दिया जाता है। जीवन के टुकड़ों को ढ़ोने वाले लोग विशेषज्ञ माने जाते हैं। ऐसे चिंतन व व्यवहार से जीवन का ह्रास होता है, और जीवन को रिकवर करने के लिये ऐक्जिस्टेंसियलिज्म का जन्म होता है, जो जीवन के सार को गढ़ने की बात करता अपने विकल्पों के साहसिक प्रयोग से। इन विचारों के चिंतन में जीवन, उसके समन्वय, उसके आसाधारण अस्तित्व की बात पीछे रह जाती है, बस बच जाता है अकेला मनुष्य और उसका उसके अहँकार से अमिट संघर्ष। पर जीवन का सत्य संघर्ष से नहीं प्रेम से है, करुणा से है, शान्ति से है।
Aristotle once wrote in his Nicomachean Ethics that there are four significant virtues for human beings, namely Prudence, Temperance, Justice, and Courage. There are a few judges who have courage and sense of justice, both. Hon'ble Mr. Justice Rohinton Nariman has been truly an exemplar judge and erudite historian, theologian and philologist, a great scholar of music as well as a courageous and meticulous jurist of our country. He did his Master of Laws from Harvard Law School in 1980-81 and taught by one of the finest jurists of the last century, Roberto Unger. He became Senior Advocate in 1993 in the age of 37 and also served as Solicitor General of India in 2011 before he was elevated as a judge of the Supreme Court of India in 2014. He delivered many landmark judgments, including Shreya Singhal v. Union of India. There are a few people with whom time moves too fast, but to count that experience takes ages. Justice Rohinton Nariman is one of those great jurists with whom a meet...
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