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आस्तिक कौन है?


Portrait Source: https://philosophy-of-megaten.fandom.com/wiki/Pantheism_and_Panentheism

ये सवाल ही कुछ टेढ़ी मालूम पड़ती है कि आस्तिक कौन है. कोई ख़ुद को जान कर देखे तो मालूम होता है कि भला नास्तिक कौन हो सकता है. विज्ञान की समझ रखने वाले भी विज्ञान की प्रक्रिया में आस्था रखते हैं. पदार्थ से लेकर चैतन्य तक हमारी जानकारी में आस्था स्वतःजनित है. हम अपने विचारों, व्यवहारों, वाणी, और रिश्तों में आस्था रखते हैं. हम इस संसार में हैं या नहीं? या फ़िर ये हमारे मस्तिष्क से उपजी माया है? हम किसी सपने में जी रहे हैं या कोई सपना हममें जी रहा है? हम संसार में जी रहे हैं या हममें संसार जी रहा है? हमारी इन्द्रियाँ उत्तर नहीं दे पाती है. इन्द्रियाँ क्षमतावान हैं हम तक सूचनाएं पहुचाने में. पर ये भी स्पष्ट नहीं ही कि हम कौन हैं. शरीर, बुद्धि, या फ़िर हमारी भावनाएं? इसकी जानकारी इन्द्रियाँ नहीं दे सकती है. अवलोकन के लिए अवलोकनकर्ता का होना अनिवार्य है. ऐसे में जो हम जानते हैं, उसमें आस्था रखे बिना आगे नहीं बढ़ सकते. ज्ञान भी आस्था के साथ-साथ ही चलता है. अन्यथा ज्ञान भी अधूरा रह जायेगा जबकि उसपे विश्वास ना हो. ज्ञान पे विश्वास और ज्ञान में विश्वास सम्भव है, जबकि उसे तर्क पे परखा गया है और अनुभव के धरातल पे जाँचा गया है. पर उस परखने की प्रक्रिया में भी उस प्रक्रिया पे आस्था का होना अनिवार्य है. जब तक संदेह के बादल घिरें हैं कि अमुक प्रक्रिया सही या गलत? जाँच-पड़ताल असम्भव है. उस प्रक्रिया के जन्म में भी अनुभव और आस्था का संयोग होना अवश्यंभावी है. और इस प्रकार इस जगत में जो जाना गया है वो भी आस्था के बिना असम्भव है. जो नहीं जाना गया है वो तो आस्था पे पूरी तरह निर्भर है. और यह ऐसा ज्ञान-अनुभूति की कुछ रहस्य हैं जो कभी जाना नहीं जा सकता, इसमें भी आस्था का संचार है.

इमैनुएल कांट ने अपने "क्रिटिक ऑफ प्योर रीजन" में इस ज्ञान के कार्येक्षेत्र को 'नोमेना' और 'फेनोमेना' कहा है. जो जाना जा चुका है वो 'फेनोमेना' है. जो जाना नहीं जा सकता पर अस्तित्व के बदलते घटनाचक्र के पीछे का सत्य है, वो 'नोमेना' है. कांट ने अपने इन्द्रियों और अपने रीजन में विश्वास करते हुए फेनोमेना को समझने की कोशिश की, उसे "a priori synthetic judgment" के दायरे में देखा था. और जो समझ में आ ही नहीं सकता, क्योंकि वह "Things in itself" है, उसे उसने 'नोमेना' कह कर के संबोधित किया. जो जाना नहीं जा सकता है वो भी तो भला आस्था से ही निर्मित होता है, क्योंकि यह मान लेना कि कुछ ऐसा है जो जाना नहीं गया और जाना नहीं जा सकता. ऐसा मानना भी तो विश्वास की ही बात है. जिसके बारे में इन्द्रीयों ने नहीं बताया, जिसे तर्क और रीजन नहीं प्रकट कर सका, पर वो क्या था जो कांट को इस नतीजे तक पहुँचाया कि कुछ ऐसा भी सत्य है जो हमारे ज्ञान के क्षेत्र से बाहर है? उसे भी अपने ज्ञानेंद्रियों के सीमित होने में आस्था रही होगी. क्योंकि ज्ञान भला ख़ुद को सीमित क्यों समझेगा? ज्ञान तो प्रकाश है. उसे ख़ुद के सिमटाव का एहसास कैसे हो सकता है? ज्ञान के इर्दगिर्द बनाये गए सारे दायरे आस्था का प्रतीक मालूम पड़ते हैं. फ़िर भी लोग कहते मिलेंगे कि मैं नास्तिक हूँ. या तो वे आस्तिक शब्द को समझ नहीं पाए. या तो वे नास्तिक शब्द को उसके शाब्दिक अर्थ से कहीं ज्यादा समझ लिये. बिना आस्था के तो हम भोजन तक ग्रहण नहीं कर सकते. हमारा हर एक कदम आस्था का प्रतीक है. हमारे ज्ञान का स्वरूप और उसपे समर्पित सारे कार्य आस्था से ही संभव है. अंतोनियो ग्राम्शी ने आस्थारहित बुद्धि को "pessimism of intellect" कह करके संबोधित किया था. आस्था को हम धार्मिक व्यवस्था तक सीमित नहीं कर सकते हैं. आस्था आदर्श से ज्यादा व्यवहारिक है. बिना आस्था के जीवन संभव नहीं है. स्वामी विवेकानंद ने माना था कि स्वयं के प्रति आस्था से बड़ी कोई आस्था नहीं हो सकती. हमारे राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक व्यवस्थाएं भी आस्था के बिना संभव नहीं है. हमारा विश्वास ही हमारे समाज के प्रति निष्ठा को बढ़ाता है. बिना विश्वास के जीवन अर्थ-रहित शून्य की ओर बढ़ता है, जिसे "meaninglessness" के नाम से संबोधित जाता है. हमारे संसार में तमाम वैज्ञानिक शोधपत्रों के विकास पे नज़र डाली जाए तो पता लगता है कि वो पहले ही इन्ट्यूशन से निर्देशित हो रहे होते हैं. डार्विन से पहले विकाशवाद पे अनाक्जीमेंडर ने विचार किया था, टाउनशेंड ने भी "डिजरटेशन ऑफ पॉवर्टी" में इसका जिक्र किया था. माल्थस की "पॉपुलेशन थिओरी" भी विकाशवाद की ओर इशारा करते हुए नज़र आती है. चार्ल्स डार्विन इस तरह के विचारों से अवगत थे. उन्होंने साक्ष्यों को खोजकर उसका विश्लेषण मात्र किया. पर ये कहना कि विज्ञान किसी अंधकार के पर्दे को हटाने से प्रकट होता है, उपयुक्त मालूम नहीं होता है. विज्ञान भी वैज्ञानिक के सेलेक्शन नॉन सेलेक्शन पे निर्भर करता है. सत्य डिस्कोर्स का अटूट हिस्सा है जो डिस्कोर्स के आस्था के इर्दगिर्द निर्मित होता है. मैंने जीवन को नास्तिक नहीं पाया. और जीवन से बाहर हमारा कोई अस्तित्व ही कहाँ है.

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